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________________ ५९] જ્ઞાનાંજલિ स्वरूपज्ञापकम् " ऐसा उल्लेख मिलता है. इससे ज्ञात होता है कि 'प्रबंधशत' नामकी इनको कोई नाट्यविषयक रचना थी. इनके अतिरिक्त ज्योतिष, रत्नपरीक्षा शास्त्र, अंगलक्षण, आयुर्वेद आदि विषयक प्राकृत ग्रंथ मिलते हैं. आयुर्वेदविषयक एक प्राकृत ग्रंथ मेरे संग्रहमें है, जिसका नाम ' योगनिधान' है. पं० अमृतलालके संग्रहमें प्राकृतभाषामें रचित कामशास्त्रका 'मयणमउड' नामक ग्रंथ भी है. यहां पर मैंने आगम और उनको व्याख्यासे प्रारंभ कर विविध विषयोंके महत्त्वपूर्ण प्राकृत वाङ्मयका अतिसंक्षिप्त परिचय देनेका प्रयत्न किया है. इससे आपको पता लगेगा कि-प्राकृत भाषामें कितना विस्तृत एवं विपुल साहित्य है और विद्वानोंने इस भाषाको समृद्ध करनेके लिए क्या क्या नहीं लिखा ? अपने-अपने विषयकी दृष्टिसे तो इस समग्र साहित्यका मूल्य है ही, किन्तु इस वाङ्मयमें जो सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक विपुल सामग्री भरी पड़ी है, उसका पता सटीक बृहत्कल्पसूत्र, निशिथचूर्णि, अंगविजा, चउपन्नमहापुरिसचरियं आदिके परिशिष्टोंको देखनेसे लग सकता है. प्राकृत भाषा और उसके सर्वांगीण कोशकी सामग्री इस वाङ्मयमेंसे ही पर्याप्त मात्रामें प्राप्त हो सकती है. पूर्वोक्त प्राकृत कोशोमें नहीं आये हुए हजारों शब्द इस वाङ्मयसे प्राप्त हो सकते हैं. इसी तरह आचार्य हेमचंद्रकी देसी नाममाला' में असंग्रहीत सैकडों देशी शब्द इस वाङ्मयमें दिखाई देते हैं. इसके लिए विद्वानोंको इसी वर्ष प्रकाशित डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा संपादित प्राकृत कुवलयमाला एवं पं० अमृतलाल भोजक द्वारा संपादित 'चउपनमहापुरिसचरियं' की प्रस्तावना एवं शब्दकोशोंका परिशिष्ट देखना चाहिए. मेरा मत है कि ---- भविष्यमें प्राकृत भाषाके सर्वांगीण कोशके निर्माताओं को यह समग्र वाङ्मय देखना होगा; यही नहीं अपितु संस्कृत भाषाके कोशके निर्माताओंको भी यह वाङ्मय देखना व शब्दोंका संग्रह करना अति आवश्यक है. इसका कारण यह है कि --प्राकृत व संस्कृत भाषाको अपनाने वाले विद्वानोंका चिरकालसे अति नैकट्य रहा है। इतना ही नहीं अपितु जो प्राकृत वाङ्मयके निर्माता रहे हैं वे ही संस्कृत वाङ्मयके निर्माता भी रहे हैं. अतः दोनों कोशकारोंको एक-दूसरा साहित्य देखना आवश्यक है. अन्यथा दोनों कोश अपूर्ण ही होंगे. इस आगमादि साहित्यसे विद्वानोंको आन्तरिक व बाह्य अथवा पारमार्थिक व व्यावहारिक जीवनके साथ संबंध रखनेवाले अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है. यद्यपि भारतीय आर्य ऋषि, मुनि एवं विद्वानोंका मुख्य आकर्षण हमेशा धार्मिक साहित्यकी ओर ही रहा है, तथापि इनकी कुशलता यही है कि -- इन्होंने लोकमानसको कभी भी नहीं ठुकराया, इसीलिए इन्होंने प्रत्येक विषयको लेकर साहित्यका निर्माण किया है. साहित्यका कोई अंग इन्होंने छोड़ा नहीं है। इतना ही नहीं अपितु अपनी धर्मकथाओंमें भी समय-समय पर साहित्यके विविध अंगोंको याद किया है. यही कारण है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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