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________________ ४४] સાનાજલિ ५. मुनिचन्द्रसूरि [वि० १२वीं शताब्दी; ललितविस्तरापञ्जिका, उपदेशपदटीका, देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरणवृत्ति, अनेकसंख्यप्रकरण, कुलक आदिके प्रणेता], ६. यशोदेवसूरि [सं० ११८०], ७. विजयसिंहसूरि [सं० ११८३, श्रावकप्रतिक्रमणचूर्णिके प्रणेता], ८. तिलकाचार्य [सं० १२९६], ९. सुमतिसाधु [वि० १३वीं श०], १०. पृथ्वीचन्द्रसूरि [वि. १३वीं श०], ११. जिनप्रभसूरि [सं० १३६४], १२. भुवनतुंगसूरि [वि०१४ वींश०], १३. ज्ञानसागरसूरि [सं० १४४०], १४. गुणरत्नसूरि (वि० १५वीं श०], १५. रत्नशेखरसूरि [सं० १४९६], १६. कमलसंयमोपाध्याय [सं० १५४४], १७. विनयहंसगणि [सं० १५७२], १८. जिनहंससूरि [सं० १५८२], १९. हर्षकुल सं० १५८३], २०. ब्रह्मर्षि [वि० १६वीं श०], २१. विजयविमलगणी-वानर्षि [सं० १६३४], २२. समयसुन्दरोपाध्याय [वि० १७ वीं श०], २३. धर्मसागरोपाध्याय [सं० १६३९], २४. पुण्यसागरोपाध्याय [सं० १६४५], २५. शान्तिचन्द्रोपाध्याय [सं० १६५०], २६. भावविजयगणि [वि. १७ वीं श०], २७, ज्ञानविमलसूरि वि० १७वीं श०], २८. लक्ष्मीवल्लभगणि [वि० १७वीं श०], २९-३० सुमतिकल्लोलगणि व हर्षनन्दनगणि [सं० १७०५, स्थानांगसूत्रवृत्तिगतगाथावृत्तिके रचयिता], ३१. नगर्षि [वि० १८ वीं श०] इत्यादि. इन विद्वान् आचार्योने जैन आगमों पर छोटी-बड़ी महत्त्वकी वृत्ति, लघुवृत्ति, पंजिका, अवचूरि, अवचूर्णि, दीपिका, दीपक, टिप्पन, विषमपदपर्याय आदि भिन्न भिन्न नामों वाली व्याख्याएं लिखी हैं जो मूलसूत्रोंका अर्थ समझनेमें बड़ी सहायक है. ये व्याख्याएं प्राचीन वृत्तियोंके अंशोंका शब्दशः संग्रह रूप होने पर भी कभी-कभी इन व्याख्याओंमें पारिभाषिक संकेतोंको समझानेके लिए प्रचलित देशी भाषाका भी उपयोग किया गया हैं. कहीं-कहीं प्राचीन वृत्तियोंमें 'सुगम' ' स्पष्ट' 'पाठसिद्ध' आदि लिखकर छोड़ दिये गये स्थानोंकी व्याख्या भी इनमें पाई जाती है. इस दृष्टिसे इन व्याख्याकारोंके भी हम बहुत कृतज्ञ हैं. माकृत वाङ्मय भारतीय प्राकृत वाङ्मय अनेक विषयों में विभक्त है. सामान्यतः इनका विभाग इस प्रकार किया जा सकता है: जैन आगम, जैन प्रकरण, जैन चरित-कथा, स्तुति-स्तोत्रादि, व्याकरण, कोष, छंदःशास्त्र, अलंकार, काव्य, नाटक, सुभाषित आदि. यहां पर इन सबका संक्षेपमें परिचय दिया जायगा. जैन आगम – जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध साहित्य मुख्य और अवान्तर अनेक विभागोंमें विभक्त है उसी प्रकार जैन आगम भी अनेक विभागोंमें विभक्त है. प्राचीन कालमें आगमोंके अंग आगम और अंगबाह्य आगम या कालिक आगम और उत्कालिक आगम इस तरह विभाग किये जाते थे. अंग आगम वे हैं जिनका श्रमण भगवान् महावीरके ग्यारह गणधर-पट्टशिष्योंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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