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________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય [३५ ___ यहाँ पर प्राचीन चूर्णियों एवं उनमें प्राप्त होनेवाले पाठभेदादिका उल्लेख कर आपका जो समय लिया है उसका कारण यह है कि चलभी नगर में स्थविर आर्य देवद्धिंगणि क्षमाश्रमण प्रमुख जैन संघने जो जैन आगमों का व्यवस्थापन किया था और इन्हें ग्रंथारूढ किया था वह यदि विस्तृत रूपमें होता तो वालभी ग्रंथलेखनके निकट भविष्यमें होनेवाले चूर्णिकार, आचार्य हरिभद्र, आचार्य शीलांक, श्री अभयदेवसूरि आदिको विकृतातिविकृत आदर्श न मिलते. जसे आज हमें चार सौ, पाँच सौ, यावत् हजार वर्ष पुरानी शुद्धप्रायः हस्तप्रतियां मिल जाती हैं उसी प्रकार चूर्णिकार आदिको भी वलभीव्यवस्थापित शुद्ध एवं प्रामाणिक पाठ वाले आदर्श अवश्य ही मिलते, किन्तु वैसा नहीं हुआ. इसके लिये उन्होंने विषाद ही प्रकट किया है. अतः मुझे यही लगता है कि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणका ग्रंथलेखन बहुत संक्षिप्त रूपमें हुआ होगा, जो वलभीके भंगके साथ ही नष्ट हो गया. (२४) भदियायरिय – सूत्रकृतांगचूर्णि, पत्र ४०५ के " अत्र दूषगगिक्षमाश्रमणशिष्यभदियाचार्या ब्रुवते" इस उल्लेख के अनुसार भदियाचार्य स्थविर दूषगणिके शिष्य थे. इनके नामका उल्लेख एवं मतका संग्रह अगस्त्यसिंहविरचित दशवैकालि कचूर्णि पत्र ३ और अनामकर्तृक दशवैकालिकचूर्णि पत्र ४ में भी पाया जाता है. (२५) दत्तिलायरिय --- इनके नामका निर्देश एवं मतका संग्रह उपर्युक्त दोनों दशवैकालिकचूर्णियोंके क्रमशः ३ व ४ पत्रमें है. अज्ञातकर्तृक दशवैकालिकचूर्णिमें भदियायरिय एवं दत्तिलायरिय – इन दोनों स्थविरोंके नामों का उल्लेख व इनके मतका संग्रह सामान्यतया किया गया है, जब कि अगस्त्यसिंहविरचित चूर्णिमें " इह कयरेण एक्केण अहिकारो? सव्वण्णुभासिए का एक्कोयमयवियारणा ? तहा वि वखाणभेदपदरिसणत्थं क्रित्तिनिमित्तं गुरूणं भण्णति - भदियायरिओवएसेणं भिन्नरूवा एका दससदेण संगिहीया भवंति त्ति संगहेककेण अहिकारो, दत्तिलायरिओवएसेण सुयनाणं खओवसमिए भावे वति त्ति भावेककेण अहिगारो" इस प्रकार है. इस तरह इन दोनों स्थविरोंके नामका उल्लेख 'कित्तिनिमित्तं गुरूणं' इस वाक्यसे बड़े आदरके साथ किया है. सम्भव है, चूर्णिकारका इन स्थविरोके साथ अनुयोगविषयक कोई खास घनिष्ठ सम्बन्ध होगा. (२६) गंधहस्ती-आचार्य शीलांकके आचारींगसूत्रकी वृत्तिके प्रारम्भमें "शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम्" इस उल्लेखसे गन्धहस्ति आचार्यको आचारांगसूत्रके प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञाका विवरणकार बताया है. हिमवंतस्थविरावलिमें आचार्य गन्धहस्तिके विषयमें इस प्रकारका निर्देश है____ "तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्रा-ऽऽयंस्कन्दिलाचार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीवविद्वांसः प्रभावकाश्चाभवन् । तैश्च पूर्वस्थविरोत्तं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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