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________________ જ્ઞાનભંડા પર એક દષ્ટિપાત [१५ दिक्कत या महेनत न हो इसलिये ताड़पत्रके खुगखमें धागा पिरोकर और उसके अगले हिस्सेको ऐंठन लगाकर बाहर दिखाई दे इस तरह उसे रखते थे । संशोधनके चिह्न और संकेत - जिस तरह आधुनिक मुद्रणके युगमें विद्वान ग्रन्थसम्पादक तथा संशोधकोंने पूर्णविराम, अल्पविराम, प्रश्नविराम, आश्चर्यदर्शक चिह्न आदि अनेक प्रकारके चिह्न - संकेत पसन्द किए हैं, उसी तरह प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकोंके ज़माने में भी उनके संशोधक विद्वानोंने लिखित ग्रन्थोमें व्यर्थ काट-छाँट, दाग़-धब्बा आदि न हो, टिप्पन या पर्यायार्थ लिखे बिना वस्तु स्पष्ट समझमें आ जाय इसके लिये अनेक प्रकारके चिह्न किंवा संकेत पसंद किए थे, जैसे कि - (१) गलितपाठदर्शक चिह्न, (२) गलितपाठविभागदर्शक चिह्न, (३) 'काना' दर्शक चिह्न, (४) अन्याक्षरवाचनदर्शक चिह्न, (५) पाठपरावृत्तिदर्शक चिह्न, (६) स्वरसन्ध्यंशदर्शक चिह्न, पाठान्तरदर्शक चिह्न, (८) पाठानुसन्धानदर्शक चिह्न, (९) पदच्छेददर्शक चिह्न, (१०) विभागदर्शक चिह्न, (११) एकपददर्शक चिह्न, (१२) विभक्तिवचनदर्शक चिह्न, (१३) टिप्पनक(विशेष नोट्स)दर्शक चिह्न, (१४) अन्वपदर्शक चिह्न, (१५) विशेषण-विशेष्य-सम्बन्धदर्शक चिह्न और (१६) पूर्वपदपरामर्शक चिह्न । चिह्नोंके ये नाम किसी भी स्थानपर देखने में नहीं आए परन्तु उनके हेतुके लक्षमें रखकर मैने स्वयं ही इन नामोकी आयोजना की है। __ ग्रन्थ-संरक्षणके साधन लिखित पुस्तकोंके लिये दो प्रकारकी कांबियोंका (सं० कम्बिका फुट जैसी लकड़ीकी पट्टी) उपयोग किया जाता था । उनमें से एक बिलकुल चपटी होती थी और दूसरी हाँस अर्थात् आगेके भागमें छोटेसे खडेवाली होती थी। पहले प्रकारकी कांबोका पुस्तक पढ़ते समय उँगलीका पसीना या मैलका दाग़ उस पर न पड़े इसलिये उसे पन्ने पर रखकर उस पर उँगली रखने में किया जाता था । जिस तरह आज भी कुछ सफ़ाईपसंद और विवेकी पुरुष पुस्तक पढ़ते समय उँगलीके नीचे कागज़ वगैरह रखकर पढ़ते हैं ठीक उसी तरह पहले प्रकारकी कांबीका उपयोग होता था। दूसरी तरहकी कांबीका उपयोग पन्नेके एक सिरेसे दूसरे सिरे तक या यंत्रादिके आलेखनके समय लकीरें खींचनेके लिये किया जाता था । कम्बिकाके उपयोगकी भाँति ही पुस्तक मुड़ न जाय, बिगड़ न जाय, उसके पन्ने उड़ न जाय, वर्षाकालमें नमी न लगे - इस तरहकी ग्रन्थकी सुरक्षितताके लिये कवली ( कपड़ेसे मढ़ी हुई छोटी और पतली चटाई), पाठे अर्थात् पुढे, वस्त्रवेष्टन, डिब्बे आदिका भी उपयोग किया जाता था । पाठे और डिब्बे निरुपयोगी कागज़ोकी लुगदीमेंसे अथवा कागज़ोको एक दूसरेके साथ चिपकाकर बनाए जाते थे। पाठे और डिब्बोंको सामान्यतः चमड़े या कपड़े आदि से मढ़ लिया जाता था अथवा उन्हें भिन्न भिन्न प्रकारके रंगोंसे रंग लेते थे। कभी कभी तो उन पर लता आदिके चित्र और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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