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________________ જ્ઞાનાંજલિ भाण्डारों में से नहीं मिला । परन्तु इसका अर्थ इतना ही है कि पूर्वकालमें लिखे गए ग्रन्थ जैसे जैसे बूढ़े हुए - नाशाभिमुख हुए -वैसे वैसे उनके उपरसे नई नई नकलें होती गई और नए रचे जानेवाले ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे। इस तरह हमारे सामने जो ग्रन्थ-सामग्री मौजूद है उसमें मेरी दृष्टिसे, विक्रमकी पूर्व शताब्दियोसे लेकर नवीं शताब्दी तकके ग्रन्थों का अवतरण हैं और नवीं शताब्दीके बाद नए रचे गए ग्रन्थोंका भी समावेश है । मेरे देखे हुए ग्रन्थों में ताड़पत्रीय ग्रन्थोंकी संख्या लगभग ३,००० (तीन हज़ार) जितनी और कागज़के ग्रन्थोंकी संख्या तो दो लाखसे कहीं अधिक है । यह कहने की ज़रूरत नहीं कि इसमें सब जैन फ़िरकोंके सब भाण्डारोंके ग्रन्थों की संख्या अभिप्रेत नहीं है, वह संख्या तो दस-पन्द्रह लाखसे भी कहीं बढ़ जायगी। जुदी जुदी अपेक्षासे भाण्डारीका वर्गीकरण नीचे लिखे अनुसार किया जा सकता है । इतना ध्यानमें रहे कि यह वर्गीकरण स्थूल है । प्राचीनताकी दृष्टिसे तथा चित्रपट्टिका एवं अन्य चित्रसमृद्धिकी दृष्टि से और संशोधित तथा शुद्ध किए हुए आगमिक साहित्यकी एवं तार्किक, दार्शनिक साहित्यकी दृष्टि से - जिसमें जैन परम्पराके अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध परम्पराओंका भी समावेश होता है - पाटन, खम्भात और जेसलमेरके ताड़पत्रीय संग्रह प्रथम आते हैं। इनमें से जेसलमेरका खरतर-आचार्य अंजिनभद्रसूरि संस्थापित ताडपत्रीय भाण्डार प्रथम ध्यान खींचता है। नवीं शताब्दीवाला ताड़पत्रीय ग्रन्थ विशेषावश्यक महाभाष्य जो लिपि, भाषा और विषयकी दृष्टिसे महत्त्व रखता है वह पहले पहल इसी संग्रहमें से मिला है । इस संग्रहमें जितनी और जैसी प्राचीन चित्रपट्टिकाएँ तथा इतर पुरानी चित्रसमृद्धि है उतनी पुरानी और वैसी किसी एक भाण्डारमें लभ्य नहीं। इसी ताड़पत्रीय संग्रहमें जो आगमिक ग्रन्थ हैं वे बहुधा संशोधित और शुद्ध किए हुए हैं। वैदिक परम्पराके विशेष शुद्ध और महत्त्वके कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं जो इस संग्रहमें हैं। इसमें सांख्यकारिका परका गौडपाद-भाष्य तथा इतर वृत्तियाँ हैं । योगसूत्रके ऊपरको व्यासभाष्य सहित तत्त्ववैशारदी टीका है । गीताका शांकरभाष्य और श्रीहर्षका खण्डनखण्डखाद्य है । वैशेषिक और न्यायदर्शनके भाष्य और उनके उपरको क्रमिक उदयनाचार्य तककी सब टीकाएँ मौजूद हैं । न्यायसूत्र उपरका भाष्य, उसका वार्तिक, वार्तिक परकी तात्पर्यटोका और तात्पर्यटीका पर तात्पर्यपरिशुद्धि तथा इन पाँचों ग्रन्थोंके उपर विषमपदविवरणरूप 'पंचप्रस्थान' नामक एक अपूर्व ग्रन्थ इसी संग्रहमें है । बौद्ध परम्पराके महत्त्वपूर्ण तर्कग्रन्थोंमेंसे सटीक सटिप्पण न्यायबिन्दु तथा सटीक सटिप्पण तत्त्वसंग्रह जैसे कई ग्रन्थ हैं । यहाँ एक वस्तुकी भोर मैं ख़ास निर्देश करना चाहता हूँ जो संशोधकोंके लिये उपयोगी है । अपभ्रंश भाषाके कई अप्रकाशित तथा अन्यत्र अप्राप्य ऐसे बारहवीं शतीके बड़े बड़े कथा-ग्रंथ इस भाण्डारमें हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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