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________________ ___ श्री. दरबारीलाल परन्तु जैनसमाज से मैं विनीत किन्तु स्पष्ट शब्दों में कह देना चाहता हूं कि यह रुख जैन धर्म का रुख नहीं है । जैन धर्म कवित्व की अपेक्षा विज्ञान की नींव पर अधिक खड़ा है । कवित्व में भावुकता रहती है अवश्य, परन्तु उसमें अन्धश्रद्धा नहीं होती और विज्ञान में तो अन्धश्रद्धा का नाम ही पाप समझा जाता है। विज्ञान का तो प्राण ही विचारकता, निष्पक्षता है । यदि जैन समाज जैनधर्म को वैज्ञानिक धर्म कहना चाहता है-जेसा कि वह हैतो उस स्वतन्त्र विचारकता, योग्यपरिवर्तनशीलता, सुधारकता का स्वागत करना चाहिये। धर्म का मूल द्रव्यों की, योजनों की, वर्षों की और अविभाग प्रतिच्छेदों की गणना में नहीं है किन्तु वह जनहित में है । विश्व के कल्याण के लिये, सत्य की पूजा के लिये किसी भी मान्यता का बलिदान किया जा सकता है । विज्ञान आज जो विद्युद्वेग से दौड़ रहा है और विद्युत् के समान ही चमक रहा है उसका कारण यही है कि उस में अहंकार नहीं है । सत्य की वेदी पर वह प्राचीन से प्राचीन और प्यारे से प्यारे सिद्धान्त का विचार का बलिदान कर देता है । कोइ धर्म अगर वैज्ञानिक है तो उसमें भी यही विशेषता होना चाहिये । एक दिन जैनधर्म में यह विशेषता थी इसीलिये वह ईश्वर सरीखे सर्वमान्य तत्त्व को निरर्थक समझकर सिंहासन से उतार सका, वेद सरीखे देशमान्य श्रद्धास्पद ग्रंथ को फेंक सका, विज्ञान की कसोटी पर जो न उतरा उसका 'ओपरेशन' कर दिया तभी वह दृढ़ता के साथ कह सका कि मैं वेज्ञानिक हूं। परन्तु आज का जैनधर्म अर्थात् जैनधर्म के नाम पर समझा जानेवाला वह रूप जो साधारण लोगों की अन्धश्रद्धारूपी गुफा में पड़ा है-क्या इस प्रकार वैज्ञानिकता का परिचय दे सकता है ? आज तो जैन समाज का शिक्षित और त्यागीवर्ग भी वैज्ञानिक जैनधर्म के पक्ष में खड़ा नहीं हो पाता। शिक्षित वर्ग की शक्ति भी जनता को सुपथ पर लाने में नहीं किन्तु रिझाने में नष्ट हो रही है। उसे वैज्ञानिक जैनधर्म के मार्ग पर चलाने की बात तो दूर, परन्तु सुनाने में और सुनने में भी उसका हृदय प्रकम्पित हो ऊठता है । आह ! कहां जैनधर्म, कहां उसकी वैज्ञानिकता, अनेकान्तता और कहां यह कायरता, अन्धश्रद्धा !! दोनो में जमीन-आसमान से भी अधिक अन्तर है। याद रखिये । इस वैज्ञानिक निःपक्षता के विना अनेकान्त पास भी नहीं फटक सकता, और अनेकान्त के बिना जैनधर्म की उपासना करना प्राणहीन शरीर का उपयोग करना है। जैनधर्म की विजय वैजयन्ती उड़ाने की बात दूर रहे, परन्तु उस से जैन समाज अगर कुछ लाभ उठाना चाहता हो तो उसे सत्य और कल्याणकारी प्रत्येक विचार और प्रत्येक आचार को अपना कर, उसका समन्वय कर अनेकान्त की व्यावहारिक उपयोगिता का परिचय देना चाहिये। जहां अनेकान्त की यह व्यावहारिक उपयोगिता है वहां जैनधर्म है । इस के बिना जैनधर्म का नाम तो रक्खा सकता है; परन्तु जैनधर्म नहीं रक्खा जासकता । अताब्दि ग्रंथ ] .: १७३ :. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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