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श्री. हंसराज शास्त्री गोविन्दसूरि हैं । इसका प्रथम संस्करण श्री बैंक्टेश्वर प्रेस बम्बई में सं० १९६३ में छपा और दूसरा इसी प्रेस में १९८२ में छपा । द्वितीय संस्करण की भूमिका में लिखा है कि-" पहली बार उदयनारायणसिंहजी ने इसका अनुवाद किया फिर उस में जो त्रुटि थी उसको बराबर करके दूसरी बार गोविन्दसूरि ने अनुवाद किया ।
स्थान-मधुरापुर डाक० विठ्ठपुर, जि० मुजफरपुर
।
प्रथम अनुवादक उदयनारायण सिंह
द्वि० अनु० गोविन्दसूरि
इस समय हमारे पास उक्त पुस्तक के | पाठकों का लक्ष बैंचते हैं । परन्तु उदाहरण दोनों संस्करण विद्यमान हैं । एक वह जिस पर | देने से पहले उदाहृत विषय का स्पष्टीकरण सिंहजी की कृपा हुई,
कर देना अधिक लाभदूसरा वह जिस पर
प्रद होगा, इसलिये सूरिजी ने अपने ज्ञान
प्रथम प्रस्तुत विषय का सूर्य की प्रचण्ड किरणे
यथार्थ स्वरूप यहां पर फैकी हैं। हमे इन
दे दिया जाता है। दोनों अनुवादक महाशयों पर दया भी
जैन धर्म के सुप्रसिद्ध आती है और इनकी
विद्वान् जिनदत्तसूरिजी इस अनधिकार चेष्टा
ने विवेकविलास ग्रन्थ पर क्रोध भी आता है।
में श्वेताम्बर और दिगइन्हों ने अनुवाद करते
म्बर साधुओं का स्वरूप समय जैन दर्शन की
लिखकर इन दोनों के जो मट्टी पलीत की है
मन्तव्य में जो स्थूल उसका अन्यत्र उदा
भेद है उसका उल्लेख हरण मिलना बहुत
किया है। जिनदत्तकठिन है। उदाहरण
श्री. हंसराज शास्त्री
सूरिजी के विवेकविलास के लिये तो इनका सारे का सारा ही अनुवाद में से सर्वदर्शनसंग्रह के कर्ता ने उक्त आशय प्रस्तुत किया जा सकता है, परन्तु इस समय के तीन श्लोक उद्धृत किये हैं। वे श्लोक इस हम सिर्फ एक ही उदाहरण की तर्फ अपने प्रकार हैंशताब्दि ग्रंथ ]
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