________________
श्री. दरबारीलाल जैन
हीन शुभाशयवालों पर शस्त्र उठाना जैसे अन्याय एवं हिंसा है वैसे अत्याचारीयों पर शस्त्र नहीं उठाना भी अन्याय एवं हिंसा है । जो अहिंसक एवं वीर है वह दुःख कभी पा नहीं सकता - पीड़ित हो नहीं सकता - मृत्यु का भय उसे हो नहीं सकता । मृत्युभय होने से वह अहिंसक नहीं हो सकता । जो वीर होगा वह आनन्द के साथ मृत्यु से आलिंगन करेगा; उससे डरेगा कभी नहीं। इस से यह निस्संदेह सिद्ध हो गया कि अहिंसा कायरता की जनक नहीं है, हिंसा ही कायरता की जनक है। जहां निर्बलता एवं कायरता का उदय होगा वहीं पर हिंसकता एवं युद्ध के बादलों की घनघोर घटा उभड़ायेगी । इसका ज्वलंत उदाहरण है - इटली-अबीसीनिया । निर्बल अबीसीनिया पर बलवान इटली साम्राज्य लिप्सा से जो अपनी दूषित मनोवृत्ति एवं बर्बरता का परिचय दे रहा है वह संसार को अविदित नहीं है ।
अहिंसा राष्ट्र की पराधीनता में भी कारण नहीं हो सकती क्यों कि पराधीनता के साथ में अहिंसा की व्याप्ति नहीं है । अहिंसा की उपासना करनेवाले सम्राट् चन्द्रगुप्त का साम्राज्य क्या परतंत्र हो गया था ? सम्राट् - अशोक की अहिंसोपासना ने राष्ट्र को कब परतंत्र बनाया था ? रोमन साम्राज्य ने तो स्वप्न में भी अहिंसोपासना नहीं की थी, फिर क्यों उसका विशाल साम्राज्य अतीत के गर्भ में चला गया एवं परतंत्र बन गया ? इस से सिद्ध है कि हिंसा - अहिंसा राष्ट्र की स्वतंत्रता में परतंत्रता - साधक नहीं हैं । प्रत्युत राष्ट्र के कर्मठ एवं चतुर आदमियों पर राष्ट्रीय स्वतंत्रता निर्भर हैं । अकुशल एवं अकर्मण्य राष्ट्रीय कर्मचारियों से देश परतंत्र हो जाता है । बल्कि मनुष्य के नैतिक आचरण में हिंसा-अहिंसा प्रधानतया कारणभूत हैं । हिंसक प्रवृत्तियों से मनुष्य का अधःपात हो जाता है और अहिंसक प्रवृत्तियों से मनुष्य आत्मिक स्वाधीनता को प्राप्त कर ले जाता है । अहिंसक प्रवृत्ति मानवता की प्रदर्शक एवं विश्वशांति की जनक है । भौतिक उन्नतियों की आत्मिक उन्नति के सामने कोई कदर नहीं है। कारण मानव का सच्चा हितभौतिक उन्नति से कभी नहीं हो सकता है । अतः यदि हम सच्ची शान्ति और सच्ची स्वाधीनता चाहते हैं तो हमें अहिंसक प्रवृत्तियों से अपनी मनोवृत्ति पवित्र बनाना चाहिये । इसलिये शांति, क्षमा, निलभता आदि बहुविध सद्गुणों का जनक अहिंसा ही परम ब्रह्म है । स्वामी समन्तभद्र का यह वचन चिरस्मरणीय है:
अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं " स्व० स्तो
(6
शताब्दि ग्रंथ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
•: १३९ :
www.jainelibrary.org