SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री. दरबारीलाल जैन खट्टे कर सकते हैं, उनके शस्त्रास्त्रों को कुण्ठित कर सकते हैं, विरोधियों को अपने पवित्र मार्ग पर ला सकते हैं। हमें मानवता के नाम पर खून की नदियां बहाना उचित नहीं हैं। महात्माजी अपने एक भाषण में कहते हैं कि "मैं हिंसा से प्राप्त किये गये स्वराज्य को हरगिज पसंद नहीं करूंगा।" महात्माजी क्षुद्र स्वार्थों के लिये मानवता की हत्या करना उचित नहीं समझते । अतएव श्री. राधाकृष्णन अपने एक दीक्षान्त भाषण में कहते हैं-"विश्व के सत्य (अहिंसा) को मुख्य स्थान देकर और उसके नीचे राष्ट्रीय नीति को गौण स्थान प्रदान कर के महात्माजी ने एक ऐसी ज्योति प्रज्वलित की है जो जल्द न बुझेगी, चिरकाल तक और बहुत दूर तक उसका प्रकाश चमकता रहेगा और संसार के ईमानदार और सच्चे आदमी उसका स्वागत करेंगे ।" इस में संदेह नहीं कि महात्माजी का यह युद्ध नवीन एवं सात्त्विक युद्ध है और विश्वशांति का एक सफल उपाय हैं । इतिहास साक्षी हैं कि जिस तरह की लड़ाइयां सृष्टि के आदि काल से होती आई हैं, उनसे संसार में दुःख एवं अशांति की कमी नहीं हुई है । अतएव महात्माजी का यह नवीन मार्ग अद्वितीय एवं विश्वशांति का जनक है। महात्माजी का यह भाव है कि हमें पहिले किसी बाहिरी शत्रु को जीतने की अपेक्षा भीतरी शत्रु को जीतना परम आवश्यक है, हमें अपने जीवन की अनुचित महत्त्वाकांक्षाओं एवं अपने सुखों, अपनी स्वार्थ वासनाओं पर लात मारनी होगी, भीतरी शत्रु को जीते विना बाह्य शत्रु को जीतना असंभव है। राष्ट्र तथा मानव का कल्याण तभी होगा जब हम शुद्ध मनोवृत्ति को प्राप्त होंगे । अतः अहिंसा को कायरता तथा भीरुता का जनक कहना महान् अनुचित है । ___ अथ च अहिंसक पुरुष में ही वास्तविक पुरुषत्व एवं वीरत्व प्रगट होता है। हिंसक में नहीं । पाठक " आज" संपादक की इन भावुक पंक्तियों पर ध्यान दें। -“वीर कभी हिंसा नहीं करता । निर्बल जो आप अपनी रक्षा नहीं कर सकते वे ही हिंसा किया करते हैं । अहिंसा कापुरुषता नही है। वीरता है । हिंसा ही कापुरुषता है । वीर रस का स्थायी भाव उत्साह और प्रसन्नता है; क्रोध और द्वेष नहीं । क्रोध और द्वेष से ही हिंसा उत्पन्न होती है । अपनी निर्बलता का परिस्फुट अथवा अस्फुट ज्ञान ही हिंसा को उत्तेजन देता है।" विचारशील पाठकों को मालूम हो गया कि अहिंसा कायरता की जनक नहीं है । कहीं हिंसायुद्ध में विजय प्राप्त हो भी गया हो तो वहां पराजित पक्ष का निरुत्साह एवं हिम्मत हारना ही कारण है जैसा कि " हंस" पत्र के संपादक "अहिंसा एक सामूहिक बल" शीर्षक लेख में कहते हैं " हिंसक प्रवृत्ति बहुत से अनिश्चित अवसरों पर सफल होती है। महायुद्ध चल रहा हो या कहीं अन्धाधुन्धी मच रही हो, शताब्दि ग्रंथ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy