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अहिंसा और विश्वशांति अहिंसा की विशेष परिभाषा यों की जाती है।." प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" अर्थात् रागादि विशिष्ट होकर अपने या परके प्राणों का घात करना हिंसा है । यह हिंसा दो प्रकार की है: द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । द्रव्यप्राणों के घात को द्रव्यहिंसा और भावप्राणों-आत्मा के विवेकादि सद्गुणों के घात को भावहिंसा कहते हैं। वास्तव में भावहिंसा ही हिंसा है' क्यों कि क्रोधादि परिणाम होने पर आत्मा के सदसद्विवेकादि गुणों का घात पहिले हो जाता है-बाद में प्राणी का घात हो या न हो । इसलिये विना भावहिंसा के कोरी द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं कही जा सकती। इसी हिंसा का नहीं होना ही अहिंसा है। जैनधर्म की तमाम क्रियायें व्यक्ति के मनोभावों पर निर्भर हैं। एक ऐसा व्यक्ति जिस ने वध करने का इरादा किया पर वध नहीं कर सका, हिंसक परिणामों की वजह से हिंसक है । एक दूसरा व्यक्ति जिस के परिणाम रक्षा करने के थे-वध के नहीं थे-प्राणी का घात हो गया-अहिंसक परिणामों की वजह से अहिंसक है; हिंसक नहीं। यदि १ यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणां ।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ श्लो. ४३ पु. सि. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्य हिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ श्लो. ४४ पु. सि. स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यंतराणां तु पश्चात्स्याद्वा नवावधः ॥ राज. वा. पृ. २७५ यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनाऽऽत्मानम् । पश्चाज्जायेत नवा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ।। श्लो. ४७ पु. सि. । अमृतचन्द्रसूरि " वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते” राज. वा. पृ. १७५ युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणाऽपि । नहि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।। पुरुषा० सि. श्लोक. ४५ " अविधायापि हिंसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥ श्लो. ५१ एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ।। ५२ ।। एकस्य सैव तीव्र दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य । ब्रजति सहकारिणोरपि हिंसावैचित्र्यमत्रफलकाले ॥ ५३ ।।
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श्री आत्मारामजी
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