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पैनधर्मका पडत्य और EMAR उसकीन्नतिफर
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श्री. मथुरदास जैन,
संसार में प्रत्येक प्राणी ही सुख का अभिलाषी है । दुःख किसी भी प्राणी को इष्ट नहीं है । बहुत-से आदमी अपनी जिंदगी की कठिनाइयों से तंग आकर जो विष का खालेना, नदी में डूबजाना, रेल के नीचे आकर प्राण दे देना आदि मृत्यु के उपायों का अवलम्बन लेते हैं वे भी केवल अपने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए ही ऐसा करते है। जब सुख सभी के लिए अभीष्ट है तो उस सुख के कारणों की खोज करना प्रत्येक प्राणी के लिए आवश्यक है; क्यों कि जब तक किसी भी कार्य के कारण को अच्छी तरह नहीं जान लिया जाता है तब तक उस कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती । संसार आज सुख के लिए लालापित होता हुआ भी अधिकांश में सुख के रास्ते से बहुत दूर है । 'मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना' अर्थात् जितने मुंड उतनी बातें की कहावत के अनुसार सांसारिक प्राणियों की सुख की परिभाषायें भी भिन्न २ हैं। कोई भोगविलास की सामग्री से सम्पन्न होने में ही सुख मानता है, दूसरा कहता है कि मेरे पुत्र-पौत्रादि की वृद्धि हो तभी मैं सुखी हो सकता हूं। इसी तरह कोई विद्वान् , कोई पहलवान्
और कोई धनवान् होने में ही सुख का अनुभव करता है; लेकिन जब हम सुख की सच्ची परिभाषा को बुद्धि की कसौटी पर कसते हैं तब हमें यही मालूम होता है कि सच्चा सुख वही है जिसकी प्राप्ति पर पुनः दुःख न हो । कहा भी है कि “ तत्सुखं यत्र नासुखम् ।”
सांसारिक सुख प्रथम तो सुख ही नहीं कहा जा सकता क्यों कि इस में मनुष्य की आकुलता और तृष्णा सदा बढ़ती ही रहती है। जहां तृष्णा और आकुलता है वहां सुख की आशा दुराशा मात्र है । किसी कवि ने कहा है किः
"आशाया दासा ये ते दासाः सर्वलोकस्य । आशा येषां दासी तेषां दासायते लोकः ।।१॥"
शताब्दि ग्रंथ]
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