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एक जैन वीर
इतने ही में गृहस्वामी उपर से नीचे उतरे । चेहरे पर उदासीनता थी । गुरुमहाराज को देखकर वंदना की । गुरुमहाराज ने धर्मलाभ दिया और पूछा: " आज आप उदास कैसे हैं ? " जोरावरसिंहजी ने हाथ जोड़े और नम्रतापूर्वक विनती की: “देव, यदि आप थोड़ा कष्ट कर उपर पधारें तो सब अर्ज करूँ । मुझे आप के उपदेश की बहुत जरूरत है ।
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गुरु महाराज मुस्कुराये और बोलेः " अच्छा चलो ।
(२)
" गुरुदेव, आप जानते हैं कि आजतक मैं ने अनेक युद्ध किये हैं और हरबार विजयपताका फरहाते हुए मैं लौटा हूँ । राज्य के सभी शत्रुओं के दाँत मैं ने खट्टे किये हैं । राजाधिराज ने हमेशा मेरा सम्मान किया है; हर लड़ाई के बाद मुझे बखशिशें देकर मेरा रुतबा भी बढ़ाया है ।
रियासत में एक 'क' नाम का ठिकाना है । उस के जागीरदार किन्हीं कारणों से रियासत या यह कही कि वर्तमान महाराज के पिछले तीन बरस से विरोधी हो गये हैं । वे महाराज की आज्ञा मानना नहीं चाहते । महाराज ने दो मर्तबा तो जागिरदार को पकड़लाने या उसका सिर लाने के लिए फौज भेजी, मगर दोनों मर्तबा जागीरदार ने फौज के दाँत खट्टे किये । सेनापतियों को शर्मिंदा होकर लौटना पड़ा ।
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जागीरदार मेरे परम मित्र हैं । मैं उनसे लड़ने जाना नहीं चाहता । कल महाराज ने फर्माया है: " जोरावरसिंह, तुम को रियासत की आबरू बचाने के लिये जाना पड़ेगा और जागीरदार को पकड़ कर लाना पड़ेगा। अगर तुम न जाओगे तो मुझे यह विश्वास करना पड़ेगा कि तुम भी राजद्रोही जागीरदार से मिले हुए हो और राजद्रोह का दंड तुम्हें भोगना पड़ेगा ।"
गुरुदेव फर्माइये मैं क्या करूँ ? एक तरफ राज्य के प्रति मेरा कर्तव्य है और दूसरी तरफ मित्रप्रेम है । कर्तव्य की पुकार है कि मैं मित्र के सामने हथियार उठाऊँ । प्रेम की पुकार है कि बन सके उतनी मित्र को मदद करूँ। अगर हथियार उठाता हूँ तो मित्रप्रेम का द्रोह होता है, मित्र और उसका कुटुंब संकट में पड़ते हैं; अगर मित्र को मदद करता हूँ तो कर्तव्यभ्रष्ट और राजद्रोही कहलाता हूँ । साथ ही अपने और अपने कुटुंब के जानोमाल को खतरे में डालता हूँ । देव, मुझे रास्ता बताइये । किस रास्ते पर चलने से मैं अपने गृहस्थधर्म का पालन यथायोग्य कर सकूँगा
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गुरुदेव कुछ देर सोचते रहे। फिर बोले: “ कहो जागीरदार का द्रोह न्याय्य है या अन्याययुक्त ? अगर द्रोह न्याययुक्त है तो मित्र को साथ दो, यदि अन्यायपूर्ण है तो मित्र
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[ श्री आत्मारामजी
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