________________
श्री. वासुदेवशरण अग्रवाल शिलालेख का देवनिर्मित शब्द यह संकेत करता है कि मथुरा का स्तूप मौर्यकाल से पहले अर्थात् लगभग छट्ठी या पांचवी शताब्दि ईस्वी. पूर्व में बना होगा । जैन विद्वान् जिनप्रभद्वारा रचित तीर्थकल्प किंवा राजप्रासाद ग्रन्थ में मथुरा के इस स्तूप के निर्माण और जीर्णोद्धार का इतिहास दिया हुआ है। उसके आधार पर बूलर ने A legend of the Jain stupa at Mattura नामक निबन्ध लिखा था । उसमें कहा है कि मथुरा का स्तूप, आदि में सुवर्णमय था, जिसे कुबेरा नामकी देवी ने सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्व की स्मृति में बनवाया था। कालान्तर में तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजी के समय में इसका निर्माण ईंटों से हुआ । भगवान् महावीर की सम्बोधि के १३०० वर्ष बाद बप्पभट्टिसूरि ने इसका जीर्णोद्धार कराया। इस आधार पर डॉ. स्मिथ ने जैन स्तूप नामक पुस्तक में यह लिखा है:
Its original erection in brick in the time of Parsvanath, the predecessor of Mahavira, would fall at a date not later than B. C. 600. Considering the significance of the phrase in the inscription" built by the Gods ” as indicating that the building at about the beginning of the Christian era was believed to date from it period of mythical antiquity, the date B. C. 600 for its first erection is not too early. Probably, therefore, this stupa, of which Dr. Fuhrer exposed the foundations, is the oldest known building in India. "
इस उद्धरण का भावार्थ यही है कि अनुश्रुति की सहायता से मथुरा के प्राचीन जैन स्तूप का निर्माणकाल लगभग छठी शताब्दि ई० पूर्व का प्रारम्भकाल था और इसी कारण यह भारतवर्ष में सब से पुराना स्तूप था ।
बौद्ध स्तूप के समीप ही दो विशाल देव-प्रासाद थे। इन में से एक मन्दिर का तोरण [ प्रासाद-तोरण ] प्राप्त हुआ था। इसे महारक्षित आचार्य के शिष्य उत्तरदासिक ने बनवाया था। इस के लेख के [E. I. Vol. II, Ins. 10.! | अक्षर भारहूत के तोरण पर खुदे हुए लगभग १५० ई० पू० के धनभूति के लेख के अक्षरों से भी अधिक पुराने हैं; अतएव विद्वानों की सम्मति में इन मन्दिरों का समय ईस्वी० पूर्व तीसरी शताब्दि समझा गया है।
अद्भुत शिल्प का तीर्थ ईस्वी० पूर्व दूसरी शताब्दि से लेकर ईसा के बाद ग्यारहवीं शताब्दि तक के शिलालेख और शिल्प के उदाहरण इन देवमन्दिरों से मिले हैं । लगभग १३०० वर्षों तक जैन धर्म के अनुयायी यहां पर चित्र-विचित्र शिल्प की सृष्टि करते रहे। इस स्थान से प्रायः सौ शिलालेख,
जताब्दि ग्रंथ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org