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पंन्यास श्री ललितविजयजी स्वर्गस्थ आचार्यदेव पर अन्य मतावलम्बियों के उत्कट प्रेम का यह दूसरा उदाहरण है।
एक बार एक महाशय जो पूरे चलते पुर्जे थे और स्थानकवासी सम्प्रदाय के माननेवाले थे, स्वर्गस्थ आचार्यदेव के पास उपस्थित हुए। पढ़े लिखे अच्छे थे, किन्तु शास्त्रज्ञान से अधूरे थे।
आप ने आते ही प्रश्न किया " महाराज मैं आप से कुछ वहम करना चाहता हूं, किन्तु वह शास्त्रों के आधार पर न हो कर केवल तर्क के ही आधार पर होगा।"
गुरुदेव ने कहा-" ठीक; जैसी तुम्हारी इच्छा ।"
"फूलों में जीव होता है और उन्हें आप मूर्तियों पर चढ़ाने का उपदेश करते हैं। क्या इस में हिंसा नहीं होती ?" उन का पहला ही प्रश्न था।
"मुझे फूलों के जीव को तो पहिले दिखा दो तब मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूं।" "वाह ! इस में क्या बात हे ? फूलों में जीव तो होता ही है।" उन्हों ने कहा । " इस का प्रमाण क्या है ?" आचार्यदेव ने पूछा। " सारे शास्त्रों में लिखा हुआ है ! सब लोग मानते हैं।" उन्हों ने उत्तर दिया।
“ भाई ! तुम तो शास्त्रों को मानते ही नहीं हो, फिर किस लिए उनका प्रमाण देते हो ?" आचार्यदेव ने कहा !
वे महाशय लज्जित हुए और उठकर चलते बने ।
प्रत्युत्पन्नयुद्धि ( हाज़रजवाबी ) इस का नाम है। विरोधी को केवल दो बातों में ही हार मान लेनी पड़ी।
एक शख्स स्वर्गस्थ आचार्यदेव के सामने आया और नमस्कार कर के बैठ गया । सुखशाता पूछने के बाद उसने प्रश्न किया कि साहिब “आप ने सम्यक्त्व. शल्योद्धार में मन्दिर बनवानेवाले श्रावक को स्वर्ग की प्राप्ति लिखी है ?" शताब्दि प्रथ]
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