________________
१ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ५७ पूज्य पण्डितजीसे एक वार्ता • श्री श्रेयांसकुमार जैन, पत्रकार, ककरवाहा ( टीकमगढ़ )
आदरणीय कोठियाजीका ७६वें जन्म दिन पर १३ जून ८७ को ककरवाहा, (टीकमगढ़ ) में अमृत-महोत्सवका आयोजन था। उसके पश्चात उन्हें बोना तक पहुँचानेकी जिम्मेवारी मुझे सौंपी गई।
बीना पहुँचने पर मैंने पंडितजीके २४ घण्टेकी दैनिक, अनुशासित, व्यवस्थित दिनचर्या देखी. आश्चर्य हुआ। मैंने पूज्य पण्डितजीसे कहा कि मैं आपके सम्बन्धमें आपसे वार्ता करना चाहता हूँ। मैंने कहा कि आपने आजादीके समरमें संघर्ष किया है। अतः वार्ता उद्देश्य यही है कि युवा पीढी संघर्षशील व्यक्तिके जीवन से प्रेरणा ले।
पहले पण्डितजी साहबने मुझे प्रेमसे बैठाया, घर-परिवार एवं अन्य चर्चायें की। तत्पश्चात् बोलेपूछो, क्या पूछना है ?
प्रश्न-आप जैन जगतके प्रमुख विद्वानोंमें से एक हैं। ऐसे समय, जबकि हर व्यक्ति डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि बननेकी आकांक्षा रखता था । संस्कृत जैसे कठिनतम विषयको पढ़नेका प्रेरणास्रोत क्या रहा?
पं० जी-जिस समय हमने पढ़नेका विचार किया उस समय दो बातें थी. एक धार्मिक भावना और दूसरा साधनोंका अभाव ।
प्रश्न-जैन दर्शनमें ही आपने आगम और अध्यात्मको छोड़कर व्याकरणको प्रमुखता क्यों दी ?
पं० जी-मेरी दृष्टि सिद्धान्त और धर्मको स्पष्ट करनेकी रही है। इतिहास, पुरातत्त्व और साहित्यिक नहीं।
प्रश्न-मानव-जीवन क्या है अर्थात् उसका रहस्य क्या है, जबकि आपने जिन्दगीके हर पहलूको नजदीकसे देखा है ?
उत्तर-मनुष्यता उसे कह सकते हैं, जिसका आधार नैतिक हो । यानि मनुष्यको जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें राजनीतिक, आर्थिक, जीवन-संचालन आदि जितनी प्रवृत्तियाँ हो सकती हैं उन सबमें कर्तव्य भावना एवं नैतिकता रखनी चाहिए।
प्रश्न-विद्यार्थी-जीवनकी कोई अविस्मरणीय घटना है ?
पं० जी-कोई नहीं। प्रश्न-एक ओर जैन पुराने मन्दिर और शास्त्र जीर्ण हो रहे हैं और दूसरी ओर नित नये मन्दिर व नया साहित्य सृजन किया जा रहा है। इस सम्बन्धमें आपकी क्या राय है ?
पं० जी-आज मन्दिरोंका निर्माण आवश्यक नहीं है। समाज को इधरसे ध्यान हटाकर संस्कृतिके विकास और पुराने मन्दिरोंके जीर्णोद्धार तथा शास्त्रोंकी सुरक्षाकी ओर ध्यान लगाना चाहिये।
प्रश्न-पं० जी साहब, आपने स्वतंत्रता आन्दोलनमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। स्वतंत्रताके पूर्व एवं आजकी राजनीतिमें आप क्या अंतर महसूस करते है ?
पं० जी-जिस समय देशको स्वतंत्र बनाना था उस समय जो लोग आन्दोलनमें कदे उनकी एक ही भावना थी देशको स्वतंत्र बनाना और उन्होंने इस सम्बन्धमें जो भी कार्य किये व्यक्तिगत लाभ और हानिकी उपेक्षा करके किये। जबकि आज प्रत्येक व्यक्ति चाहे राजनीतिक हो, चाहे वह गैर राजनीतिक हो सभी व्यक्तिगत लाभाकांक्षासे पीड़ित है । इनके सामने राष्ट्र के संरक्षण, उत्थान आदिका कोई महत्त्व नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org