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________________ ३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ धर्म, समाज और राष्ट्र-सेवाके संगम • डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' प्रभारी जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी देशके जैनागम-अध्येताओंमें 'व्याकरणाचार्य' पदसे विश्रत पं० बंशीधर जी शास्त्रीका नाम सर्वोपरि है । आपने आगमका मर्म समझा है। आगमके विरोधमें दिये गये वक्तव्योंका निर्भीकता पूर्वक परिहार भी किया है। आगमकी यथार्थताका उद्घाटन करनेमें आप कभी पीछे नहीं रहे। खानियाँ तत्त्वचर्चामे आपका नाम विशेष रूपसे चचित रहा है । 'जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार' पर्याएं क्रमबद्ध भी है और अक्रमबद्ध भी आदि ग्रन्थ आपके आगम स्नेह की ही देन है। समाज सेवाके तो आप सजग प्रहरी है। अशिक्षा, अल्पशिल्पसे ग्रस्त प्रदेशमें बहुव्ययसाध्य बहुलतासे होनेवाले गजरथ जैसी प्रवृत्तियोंका भी समाजके हितोंको ध्यान में रखते हुए आपने विरोध किया है । समाजके किसी वर्गका जैनी हो, भले ही वह दस्सा ही क्यों न हो, उसे अर्हत-पूजाका अधिकार दिलानेमें हमेशा आप प्रयत्नशील रहे हैं। देश-सेवाके तो आप अग्रदूत ही हैं । देशके लिए आपने सहर्ष जेल-यातनाएं सही हैं । राष्ट्रमें आज स्वतन्त्रता संग्राम सेनानीके रूप में आपका बड़ा सम्मान है। चौरासी वर्षकी अवस्थामें भी आप नित्य प्रातः चार बजे सोकर उठ जाते हैं। अनवरत २ घंटे अध्ययन करते हैं । आहार इतना अल्प रह गया है मानो शरीरकी स्थितिके लिए ही आहार लेते हों । आप धर्म, समाज और देश सेवाके संगम स्थल हैं। ऐसे धर्म, समाज और राष्ट्रसेवी मनीषीको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करनेका निर्णय समाजके गौरवका विषय है । पूर्ण हर्षोल्लासके साथ इस समारोहका आयोजन होना चाहिए । इस अवसरपर मैं वर्द्धमान भगवानसे कामना करता हूँ कि अभिनन्दनीय श्री पं० व्याकरणाचार्यजी स्वस्थ रहें और दीर्घतम आयु प्राप्त कर इसी प्रकार धर्म, समाज और राष्ट्रकी सेवा करते रहें। देश और समाज की निधि सरलता की मूर्ति को। ___ शत शत नमन अर्पित 'सुमन' श्रुतसेवियोंके चमन को ।। शुभकामनाएँ • डॉ० श्रीमती रमा जैन, साहित्यरत्न, न्यायतीर्थ, छतरपुर मेरा ज्येष्ठ पुत्र प्रो० सुमतिप्रकाश जैन शास० महाविद्यालय बीनामें कार्यरत है। इस निमित्तपे एक बार मुझे अपने पति (डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी) के साथ बीना जानेका अवसर मिला। हम लोगोंके आगमनकी सचना मिलते ही पज्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने हम लोगोंको भोजनके लिए निमंत्रित किया । हम लोग उनकी और उनके पूरे परिवारकी आतिथ्यभावनाको देखकर गदगद हो गये। भोजनोपरांत दोपहरको जब पंडितजी अपने भतीजे पं० दुलीचंद्रजीको समयसारका पारायण करा रहे थे, मैं भी उसमें सम्मिलित हो गयी। उस समय प्रकृत विषयमें प्रस्तुत शंकाओंका समाधान पंडितजीने विद्वत्तापूर्ण ढंगसे किया। उनकी ताकिक एवं दार्शनिक शैलीने मुझे अपने गुरु स्व० ५० नेमीचंद्रजी ज्योतिषाचार्यका स्मरण दिला दिया। मुझे ऐसा प्रतीत हआ कि पं० श्री न केवल व्याकरणके आचार्य हैं, अपितु न्याय एवं जैन दर्शनके भी आचार्य हैं । आज भी उनका स्मरण आते ही ऐसा लगता है कि पुनः अवसर मिले और मैं उनके प्रवचनमें सम्मिलित होकर कुछ ज्ञानकण प्राप्त करूँ। ऐसे बहुश्रुत विद्वान् पण्डितजी शतायु हों, यही मेरी मंगल कामना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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