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________________ [२] अब तक कांग्रेसका और हिन्दू महासभाका भी यही दृष्टिकोण रहा है कि जैन हिन्दुओंसे पृथक् नहीं हैं, इसलिए मध्यप्रान्तीय सरकारने प्रान्तीय असेम्बलीमें जब हरिजन - मन्दिर प्रवेश बिल विचारार्थ उपस्थित किया था तब उस बिल में निर्दिष्ट 'हिन्दू' शब्दकी व्याख्यामें जैनियोंका भी समावेश था, जिससे जैन मन्दिर भी उक्त बिलके दायरेमें आते थे, लेकिन जैन समाजको यह सह्य नहीं था, इसलिए उसकी ओरसे उक्त बिलमें निर्दिष्ट 'हिन्दू' शब्द की व्याख्यामेंसे जैन शब्द के निकलवानेके लिये काफी प्रयत्न किया गया था । यद्यपि जैन समाजके इस रवैयेका उस समय 'सन्मार्ग प्रचारिणी समिति की ओरसे मैंने विरोध किया था । परन्तु जैन समाजको उसके अपने प्रयत्नमें सफलता मिली और हरिजन मन्दिर प्रवेश बिलके दायरेमें जैन मन्दिरोंको मध्यप्रांतीय सरकारने पृथक कर दिया। हो सकता है कि जैन समाजको अपनी इस तात्कालिक सफलतापर गर्व हो, परन्तु मुझे आज भी मध्यप्रान्तीय सरकारके दृष्टिकोणमें यकायक परिवर्तनपर आश्चर्य और जैन समाजकी राजनीतिक अदूरदर्शिता और सांस्कृतिक अज्ञानतापर दुःख हो रहा है । ६ / संस्कृति और समाज : ३१ जैन समाजकी आम धारणा यह है कि हिन्दू संस्कृतिका अर्थ वैदिक संस्कृति होता है और चूंकि जैन संस्कृति अपनी अनूठी मौलिक विशेषताओंके कारण वैदिक संस्कृतिसे बिलकुल निराला स्थान रखती है । इसलिए उसकी (जैन समाज को रायमें उसकी इच्छाके अनुसार सरकारको जैनियोंका हिन्दुओंसे पृथक् अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए । जबसे हमारे देशमें राष्ट्रीय सरकारकी स्थापना हुई है तभीसे जैन समाज के नेता और समाचारपत्र इस बातका अविराम प्रयत्न करते आ रहे हैं कि जैन हिन्दुओंसे पृथक् अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं । जैन समाजके सामने सबसे पहले विचारणीय बात यह है कि जैन संस्कृतिके अनुसार मानवजाति में अछूत या हरिजन नामका पृथक् वर्ग कायम ही नहीं किया जा सकता है । जैनग्रन्थोंमें जो शूद्रोंके एक वर्गको अछूत बतलाया गया है वह जैन संस्कृतिके लिये वैदिक संस्कृतिको ही देन समझना चाहिये। जिस प्रकार परिस्थितिवश किसी समय वैदिक संस्कृतिमें जैन संस्कृतिके सिद्धांत प्रविष्ट कर लिये गये थे उसी प्रकार जैन संस्कृतिमें भी परिस्थितिवश एक समय वैदिक संस्कृतिके कतिपय सिद्धान्त प्रविष्ट कर लिए गये थे, उन सिद्धांतों में शूद्रोंके एक वर्गको अछूत मानना भी शामिल है । इसलिये हरिजनोंका मंदिर प्रवेश स्वीकार कर लेनेसे वैदिक संस्कृतिका तो ह्रास कहा जा सकता है परन्तु इससे जैन संस्कृतिका तो कलंक ही दूर होता है । दूसरी विचारणीय बात यह है कि मानवसमष्टिमें छूत और अछूतका भेद भारतवर्षके लिये अभिशाप ही सिद्ध हुआ है । इसलिये सरकार इस भेदको शीघ्र ही समाप्त कर देना चाहती है। ऐसी हालत में जैन समाज अपने वर्तमान रवैयेपर कायम रह सकेगा, यह असंभव बात है। बल्कि आज इसका मतलब यह लिया जा रहा है कि नगण्य जैन समाज इस तरहसे एक बड़ी संख्यावाली जातिके साथ ऐसी दुश्मनी मोल लेना चाहती है जो उसके अस्तित्व के लिये खतरा सिद्ध हो सकती है। 'जैन मित्र' २९ जनवरी सन् ४८ के अंक में जो डॉ० हीरालालजी नागपुरका वक्तव्य प्रकट हुआ है उससे इसी बातकी पुष्टि होती है। अभी उस दिन सिवनीमें जैन समाजकी ओरसे दिये गये अभिनन्दनपत्रके उत्तर में मध्यप्रान्त और बरारके मुख्यमन्त्री श्रीमान् पं० रविशंकरजी शुक्लने कहा था कि - " मुसलमानोंको जैनियोंसे सबक सीखना चाहिये। जिस तरहसे इनने भारतको अपनी भूमि समझा और जिस प्रकार मिलजुल कर रहते हैं उसी प्रकार मुसलमानोंको भी रहना चाहिये ।" हम मुख्यमन्त्रीकी नियतपर हमला नहीं करना चाहते हैं, महापुरुषोंको अपने भाषणोंमें नपे-तुले शब्दोंका ही प्रयोग करना चाहिये, परन्तु इतना अवश्य निवेदन करेंगे कि क्योंकि कौन कह सकता है कि भविष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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