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________________ २८ : सरस्वतो-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचायं अभिनन्दन-ग्रन्थ झुकानेके लिए इस बातका दृढ़ताके साथ प्रचार किया था कि पुनर्भवमें मनुष्य योनि उसी व्यक्तिको मिल सकती है जो परिग्रहपरिमाणवती होकर अर्थात् आवश्यकताके अनुसार परिग्रह स्वीकार करके ही अपने जीवनकार्योंका संचालन किया करता है और जो इस प्रकारकी आवश्यकतासे अधिक परिग्रह रखनेका प्रयत्न करता है उसको पुनर्भवमें निश्चित ही नरकयोनिके कष्ट भोगने पड़ते हैं । इसका मतलब यह है कि आवश्यकतासे अधिक परिग्रह रखनेका अर्थ दूसरेके हकका अपहरण करना ही तो है और जो इस तरहसे दूसरेके हकका अपहरण करता है उसे प्रकृति इस प्रकारका दण्ड देती है कि पुनर्भवमें उसे जीवन-कार्योंके संचालनकी सामग्री अप्राप्य ही रहा करती है। यहाँपर यह बात अवश्य ही ध्यानमें रखना चाहिए कि यद्यपि प्रत्येक मनुष्यकी जीवनसम्बन्धी खोने पाने पहिनने-ओढ़ने और निवास वगैरहकी आवश्यकतायें समान है फिर भी कोई व्यक्ति तो सिर्फ अपने जीवनकी जवाबदारी बहन करता है, कोई व्यक्ति छोटे या बड़े एक कुटुम्बके जीवनकी जवाबदारी बहन करता है और कोई व्यक्ति इससे भी आगे बहुतसे कुटुम्बोंकी जवाबदारी बहन करता है। इसलिए इस आधारपर भिन्न-भिन्न मनुष्योंकी आबश्यकतायें भी तरतमरूपसे भिन्न-भिन्न ही रहा करती हैं। और इस आधारपर परिग्रहका परिमाण भी किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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