SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 634
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . ६/ संस्कृति और समाज : १९ पालयंतेषु उच्चागोत्तुवलंभावो, उच्चागोदे देससयलसंजमणिबंधणे संते मिच्छाइट्ठीसु तदभावो त्ति णासंकणिज्जं, तत्थवि उच्चागोदजणिदसंजमजोगतावेक्खाए उच्चागोदत्तं पडि विरोहाभावादो'। यह व्याख्यान शंका और समाधानके रूपमें हैं। इसमें निर्दिष्ट जो शंका है वह इसलिए उत्पन्न हुई है कि इस प्रकरणमें इस व्याख्यानके पूर्व ही तिर्यग्गतिमें भी उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणाका प्रतिपादन किया गया है।' व्याख्यानका हिन्दी अर्थ निम्न प्रकार है शंका-तिर्यचोंमें नीचगोत्रकर्मको उदीरणा होती है यह तो आगममें सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, लेकिन इस प्रकारमें उनके उच्चगोत्रकर्मकी उदीरणाका भी प्रतिपादन किया गया है इसलिए आगममें पूर्वापर विरोध उपस्थित होता है। समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि संयमासयमका पालन करनेवाले तिर्यचोंमें ही उच्चगोत्रकी उपलब्धि होती है। शंका-यदि जीवोंमें देशसंयम और सकलसंयमके आधारपर उच्चगोत्रका सदभाव माना जाय तो इस तरह मिथ्यादृष्टियोंमें उच्चगोत्रका अभाव मानना होगा जबकि जैनसिद्धान्तकी मान्यताके अनुसार उनमें उच्चगोत्रका भी सद्भाव पाया जाता है। समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि मिथ्याष्टियोंमें देशसंयम और सकलसंयमकी योग्यताका पाया जाना तो सम्भव है ही इसीलिए उनकी उच्चगोत्रताके प्रति आगमका विरोध नहीं रह जाता है। यद्यपि घवलाके उक्त शंका-समाधानसे तिर्यग्गतिमें उच्चगोत्रकी उदीरणा सम्बन्धी प्रश्न तो समाप्त हो जाता है परन्तु इससे एक तो देशसंयम और सकलसंयमको उच्चगोत्रकर्मके उदयके सदभाबमें कारण माननेसे पंचम गुणस्थानमें जैनदर्शनके कर्म-सिद्धान्तके अनुसार प्रतिपादित नीचगोत्र कर्मके उदयका सद्भाव मानना असंगत होगा और दूसरे मनुष्यगतिकी तरह तिर्यग्ग तिमें भी देशसंयम धारण करनेकी योग्यताका परिज्ञान अल्पज्ञों के लिये असम्भव रहनेके कारण उच्चगोत्रकर्म और नीचगोत्र-कर्म के उदयकी व्यवस्था करना मनुष्यगतिकी तरह जटिल ही होगा। उक्त दोनों ही प्रश्न इतने महत्त्वके हैं कि जबतक इनका समाधान नहीं होता तबतक तिर्यग्गतिमें भी उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी व्यवस्था सम्बन्धी समस्याका हल होना असंभव ही प्रतीत होता है। विद्वानोंको इनपर अपना दृष्टिकोण प्रकट करना चाहिए । हमारा दृष्टिकोण निम्न प्रकार है प्रथम प्रश्नके विषयमें हम ऐसा सोचते हैं कि आगम द्वारा तिर्यग्गतिमें उच्चगोत्रकर्मकी उदीरणाका जो प्रतिपादन किया गया है उसे एक अपवाद-सिद्धान्त स्वीकार कर, यही मानना चाहिए कि ऐसा कोई तिर्यंच-जो देशसंयम धारण करनेकी किसी विशेष योग्यतासे प्रभावित हो-उसीके उक्त आगमके आधारपर उच्चगोत्र-कर्मका उदय रह सकता है। इस तरह सामान्यरूपसे देशसंयमको धारण करनेवाला तिर्यच नीचगोत्री ही हुआ करता है। दूसरे प्रश्नके विषयमें हमारा यह कहना है कि नरकगति, तिर्यग्गति और देवगतिके जीवोंको जीवनवृत्तियोंमें समानरूपसे प्राकृतिकताको स्थान प्राप्त है, इसलिए तिर्यञ्चोंमें उच्चता और नीचताजन्य भेदका सदभाव रहते हुए भी जीवनवृत्तियोंकी उस प्राकृतिकताके कारण नारकियों और देवोंके समान ही सभी तिर्यचों १. तिरिक्खगईएउच्चागोदस्य जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्ठिदि० विसेसाहिया। धवला, पुस्तक १५, पृष्ठ १५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy