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६ / संस्कृति और समाज : १७
खण्डन --- यदि जीवोंमें उच्चगोत्र - कर्मके उदयसे पंचमहाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यताका प्रादुर्भाव होता है तो ऐसी हालत में देवोंमें और अभव्य जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्म के उदयका अभाव स्वीकार करना होगा, जबकि उन दोनों प्रकारके जीवोंमें, जैन संस्कृतिकी मान्यता के अनुसार, उच्चगोत्र-कर्मके उदयका तो सद्भाव और पंचमहाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यताका अभाव दोनों ही एक साथ पाये जाते हैं ।
३. समाधान - जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति उच्चगोत्र-कर्मके उदयसे हुआ करती है ।
खण्डन - यह समाधान भी सही नहीं है क्योंकि जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति उच्चगोत्र- कर्मका कार्यं न होकर ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमकी सहायतासे सापेक्ष सम्यग्दर्शनका ही कार्य है, दूसरी बात यह है कि जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र- कर्मका कार्य माना जायगा तो फिर तियंचों और नारकियोंमें भी उच्चगोत्रकर्मके उदयका सद्भाव माननेके लिये हमें बाध्य होना पड़ेगा, जो कि अयुक्त होगा, क्योंकि जैनशास्त्रोंकी मान्यताके अनुसार जिन तिर्यंचों और जिन नारकियोंमें सम्यग्ज्ञानका सद्भाव पाया जाता है उनमें उच्चगोत्र कर्मके उदयका अभाव ही रहा करता है ।
४. समाधान - जीवोंमें आदेयता, यश और सुभगताका प्रादुर्भाव होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है । खण्डन -- यह समाधान भी इसीलिए गलत है कि जीवोंमें आदेयता, यश और सुभगताका प्रादुर्भाव उच्चगोत्र-कर्मके उदयका कार्य न होकर क्रमशः आदेय, यशः कीर्ति और सुभग संज्ञा वाले नामकर्मोंका ही कार्य है ।
५. समाधान -- जीवोंका इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रियकुलोंमें जन्म लेना उच्चगोत्र - कर्मका कार्य है ।' खण्डन – यह समाधान भी उल्लिखित प्रश्नका उत्तर नहीं हो सकता है क्योंकि इक्ष्वाकुकुल आदि जितने क्षत्रियकुलोंको लोकमें मान्यता प्राप्त है वे सब काल्पनिक होनेसे एक तो अतद्रूप ही हैं, दूसरे यदि इन्हें वस्तुतः सद्रूप ही माना जाय तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि उच्चगोत्र-कर्मका उदय केवल इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रियकुलोंमें ही पाया जाता है; कारण कि जैन सिद्धान्तकी मान्यताके अनुसार उक्त क्षत्रियकुलोंके अतिरिक्त वैश्यकुलों और ब्राह्मणकुलोंमें भी तथा सभी तरहके कुलोंसे बन्धन से मुक्त हुए साधुओंमें भी उच्चगोत्र कर्मका उदय पाया जाता है । २
६. समाधान-सम्पन्न ( धनाढ्य ) लोगों में जीवोंकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्र - कर्मका कार्य है ।
खण्डन – यह समाधान भी सही नहीं है क्योंकि सम्पन्न ( धनाढ्य ) लोगोंमें जीवों की उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र-कर्मका कार्य माना जायगा तो ऐसी हालतमें म्लेच्छराजसे उत्पन्न हुए बालकमें भी हमें उच्चगोत्रकर्मके उदयका सद्भाव स्वीकार करना होगा, कारण कि म्लेच्छराजकी सम्पन्नता तो राजकुलका व्यक्ति होनेके नाते निर्विवाद है, परन्तु समस्या यह है कि जैन सिद्धान्तमें म्लेच्छजातिके सभी लोगोके नियमसे नीच गोत्र-कर्मका ही उदय माना गया है ।
१. 'नेक्ष्वाकु कुलाद्युत्पत्ती' का हिन्दी अर्थ षट्खण्डागम पुस्तक १३ में 'इक्ष्वाकुकुल आदिको उत्पत्ति में इसका व्यापार नहीं होता' किया गया है जो गलत है, इसका सही अर्थ 'इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रियकुलों में जीवोंकी उत्पत्ति होना इसका व्यापार नहीं है' होना चाहिए ।
२. यहाँ पर षट्खण्डागम पुस्तक १३ में विब्राह्मणसाधुष्वपि वाक्यका हिन्दी अर्थ 'वैश्य और ब्राह्मण साधुओंमें' किया गया है जो गलत है, इसका सही अर्थ 'वैश्यों, ब्राह्मणों और साधुओंमें' होना चाहिए । ६-३
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