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________________ १० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ बाद ग्रहण किया जाता है वही सार्थक हो सकता है और उसीसे ही मुक्ति प्राप्त होनेको आशा की जा सकता है । तात्पर्य यह है कि उक्त मानसिक पराधीनताकी समाप्ति ही साधुत्व ग्रहण करने के लिए मनुष्यकी भूमिका काम देती है । इसको (मानसिक पराधीनताकी समाप्तिको) जैन संस्कृतिमें सम्यग्दर्शन नामसे पुकारा गया है और क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच और संयम ये छह धर्म उस सम्यग्दर्शनके अंग माने गए है। मानव-जोवनमें सम्यग्दर्शनका उद्भव प्रत्येक जीवके जीवनको सुरक्षा परस्परोपग्रहो जीवानाम्' सूत्रमे प्रतिपादित दुसरे जीवोंके सहयोग पर निर्भर है। परन्तु मानव जीवन में तो इसकी वास्तविकता स्पष्ट रूपमे दिखाई देती है । इसीलिए ही मनुष्यको सामाजिक प्राणी स्वीकार किया गया है, जिसका अर्थ यह होता है कि सामान्यतया मनुष्य कौटुम्बिक सहवास आदि मानव समाजके विविध संगठनोंके दायरेमें रहकर ही अपना जीवन सुखपूर्वक बिता सकता है। इसलिए कूटम्ब, ग्राम, प्रान्त, देश और विश्वके रूपमें मानव संगठनके छोटे-बड़े जितने रूप हो सकते हैं उन सबको संगठित रखनेका प्रयत्न प्रत्येक मनुष्यको सतत करते रहना चाहिए । इसके लिये प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवनमें “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्"का सिद्धान्त अपनानेकी अनिवार्य आवश्यकता है, जिसका अर्थ यह है कि "जैसा व्यवहार दूसरोंसे हम अपने प्रति नहीं चाहते हैं वैसा व्यवहार हम दूसरोंके साथ भी न करें और जैसा व्यवहार दूसरोंसे हम अपने प्रति चाहते हैं वैसा व्यवहार हम दूसरोंके साथ भी करें।" अभी तो प्रत्येक मनुष्यकी यह हालत है कि वह प्रायः दूसरोंको निरपेक्ष सहयोग देनेके लिए तो तैयार ही नहीं होता है। परन्तु अपनी प्रयोजन सिद्धिके लिए प्रत्येक मनुष्य न केवल दूसरोंसे सहयोग लेनेके लिए सदा तैयार रहता है । बल्कि दूसरोंको कष्ट पहुँचाने, उनके साथ विषमताका व्यवहार करने और उन्हें धोखेमें डालनेसे भी वह नहीं चूकता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्यका यह स्वभाव बना हुआ है कि अपना कोई प्रयोजन न रहते हुए भी दूसरोंके प्रति उक्त प्रकारका अनुचित व्यवहार करने में उसे आनन्द आता है। जैन संस्कृतिका उपदेश यह है कि 'अपना प्रयोजन रहते न रहते कभी किसोके साथ उक्त प्रकारका अनुचित व्यवहार मत करो। इतना ही नहीं, दूसरोंको यथा-अवसर निरपेक्ष सहायता पहुँचानेको सदा तैयार रहो' ऐसा करनेसे एक तो मानव संगठन स्थायी होगा दूसरे प्रत्येक मनुष्यको उस मानसिक पराधीनतासे छुटकारा मिल जायेगा, जिसके रहते हए वह अपनेको सभ्य नागरिक तो दूर मनुष्य कहलाने तकका अधिकारी नहीं हो सकता है। __ अपना प्रयोजन रहते न रहते दुसरोंको कष्ट नहीं पहुँचाना, इसे हो क्षमाधर्म, कभी भी दूसरोंके साथ विषमताका व्यवहार नहीं करना व इसे ही मार्दव धर्म; कभी भी दूसरोंको धोखे में नहीं डालना, इसे ही आर्जव धर्म; और यथा-अवसर दूसरोंको निरपेक्ष सहायता पहुँचाना, इसे ही सत्यधर्म समझना चाहिए। इन चारों धर्मोको जीवन में उतार लेनेपर मनुष्यको मनुष्य, नागरिक या सभ्य कहना उपयुक्त हो सकता है । यह भी देखते हैं कि बहुत मनुष्य उक्त प्रकारसे सभ्य होते हुए भी लोभके इतने वशीभूत रहा करते है कि उन्हें सम्पत्तिके संग्रहमें जितना आनन्द आता है उतना आनन्द उसके भोगने में नहीं आता। इसलिए अपनी शारीरिक आवश्यकताओंकी पूर्तिमें वे बड़ी कंजूसीसे काम लिया करते है, जिसका परिणाम यह होता है कि उनका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है । इसी तरह दूसरे बहुतसे मनुष्योंकी प्रकृति इतनो लोलुप रहा करती है For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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