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________________ ४६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकर गाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ इस धर्मको न तो क्षेत्रीय और कालिक किसी भी मर्यादामें बांधा जा सकता है और न ऊपर बतलायी गयी हिन्दू, जैन बौद्ध, सिख, पारसी, मुसलमान और इसाई आदि किसी खास समष्टिसे ही इसका ताल्लुक है। यह धर्म हिंदू आदि किसी भी समष्टिके किसी भी व्यक्तिका धर्म हो सकता है। इस धर्मकी प्राप्तिमें ब्राह्मण और भंगी, पुरुष और स्त्री विद्वान और मूर्ख, अमीर और गरीबका भेद कहींपर भी कभी भी बाधक नहीं हो सकता है और इसकी उपयोगिता कहीं भी, कभी भी. कैसी भी हालत क्यों न हो. मानवसमाजके लिये बनी हुई है। हम देखते हैं कि उल्लिखित तथाकथित धर्मोके आधारपर अपनेको धार्मिक समझनेवाली किसी भी समष्टिमें सामूहिकरूपसे यह धर्म नहीं पाया जाता है। प्रत्येक समाजमें स्वार्थका पोषण सर्वोपरि है और इसके लिये छल-कपट, बेईमानी, असत्यताका व्यवहार और भाई-भाई तथा पिता-पुत्रके लड़ाई-झगड़े तो जीवनके अनिवार्य अंग बन गये हैं। इन सबके विद्यमान रहते हुए भी मनुष्य केवल मनुष्य बना रहता है बल्कि वह धर्मात्मा भी बना रहता है। और तो क्या, चोरबाजार और घुसखोरी जैसे राक्षसी कृत्य करनेवाले तथा उचित-अनुचित तरीकों द्वारा निर्दयतापूर्वक व्यापकरूपसे मानवसमष्टिका संहार करनेवाले युद्धोंके प्रवर्तक और संचालक लोग भी अपनेको धर्मात्मा ही मानते हैं । हम पूछते हैं कि इस विश्वयुद्धको क्या एक ही धर्मके माननेवालोंके बीचका युद्ध नहीं कहा जा सकता है और आज कौनसी तथाकथित धार्मिक समाज गर्वके साथ इस बातका दावा कर सकती है कि उसके अन्दर चोरबाजार और घूसखोरी जैसे राक्षसी कृत्य करनेवाले व्यक्ति अधिकाधिकरूपमें मौजूद नहीं हैं ? तात्पर्य यह है कि धार्मिकताके आधारपर निर्मित हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी, मुसलमान और ईसाई आदि सभी समष्टियोंमें जब न केवल अधर्म ही बल्कि मनुष्यताका भी अभाव मौजद है तो उन्हें धार्मिक समष्टि और उनकी उस धार्मिकताको धर्म नामसे कैसे पुकारा जा सकता है ? लेकिन इस सिलसिले में यहाँपर एक और प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि जब उल्लिखित तथाकथित धर्म धर्म नहीं है तो क्या वे सब अधर्म हैं ? और यदि वे सब अधर्म हैं तो उन्हें कैसे नष्ट किया जा सकता है ? इस विषयमें मेरी मान्यता है कि उल्लिखित तथाकथित धर्म यदि धर्म नहीं हैं तो वे सर्वथा अधर्म भी नहीं हैं । परन्तु इस सबके परिष्कृत रूपोंको धर्म-प्राप्तिके उपायोंके रूपमें स्वीकार किया जाना चाहिये और इसके परिष्कृतरूपोंको मैं हिन्दू संस्कृति, जैन संस्कृति, बौद्ध संस्कृति, सिख संस्कृति, पारसी संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति और ईसाई संस्कृति आदि नाम देना उपयुक्त समझता हैं। प्रत्येक संस्कृतिको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है-एक तत्त्वज्ञान और दूसरा आचार । इन दोनों विभागोंसे सजी हुई संस्कृतिको मैं धर्म न मानकर उल्लिखित धर्मकी प्राप्तिका साधन मानता हूँ। मेरा तो यह निश्चित विचार है कि संस्कृतिको धर्मका साधन न मानकर उसे ही धर्म मान लेनेसे प्रत्येक संस्कृतिके अन्दर ढोंग, कई किस्मके अनर्थकारी विकार और रूढ़िवादको प्रश्रय मिला है तथा मनुष्य में अहंकार, पक्षपात, हट और परस्र विद्वेष तथा घृणाको अधिक-से-अधिक प्रोत्साहन मिला है। अपने धर्मको और अपनेको सच्चा और ईमानदार तथा दूसरोंके धर्मोको और दूसरोंको मिथ्या और बेईमान समझनेकी जो प्रवृत्ति मानवप्रकृतिमें पायी जाती है उसका आधार भी धर्मकी साधनभूत संस्कृतिको ही धर्म मान लेनेकी हमारी मान्यता है। यदि हम इस मान्यताको छोड़ दें और संस्कृतिको धर्मप्राप्तिका साधन समझकर उसके जरिये अपने जीवनको धार्मिक जीवन बनानेका प्रयत्न करने लग जायें, तो निश्चित ही वर्तमान प्रत्येक संस्कृतिके अन्दरसे ढोंग, अनर्थकारी विकार और रूढ़िवादका खात्मा हो जायगा तथा किसी भी संस्कृतिको अपनानेवाला मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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