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________________ सांस्कृतिक सुरक्षाकी उपादेयता' देव-आगम-गुरु वन्दना पुरःसर भो विद्वद्वन्द ! और समादरणीय उपस्थित जन-समूह ! आज मुझे इस बात का अत्यन्त संकोच हो रहा है कि भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद जैसी महत्त्वपूर्ण संस्थाका मुझे अध्यक्ष बना दिया गया है। मेरे इस संकोचका कारण यह है कि एक तो शास्त्रमर्मज्ञ, कार्यकुशल और समाजमें ख्याति प्राप्त बड़े-बड़े विद्वान विद्वत्परिषद्में सम्मिलित है, दूसरे इसके सामने आज जो समस्यायें हल करनेके लिये उपस्थित हैं उन्हें देखते हए जब मैं गहराईके साथ सोचता है तो ऐसा लगता है कि इन समस्याओंको हल कर नेकी अल्पतम क्षमता भी मेरे अन्दर नहीं है। लेकिन आपकी आज्ञाको शिरोधार्य कर मैं उन समस्याओंको आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हैं। उन पर हमें व आपको गम्भीरताके साथ मंथन करना है। प्रथम समस्या : सांस्कृतिकताको रक्षा करें विश्वके प्रांगणमें आप देखनेका प्रयत्न करेंगे तो वहाँ प्रत्येक स्थल पर आपको किसी-न-किसी संस्कृतिके दर्शन अवश्य होंगे । हमारा भारतवर्ष तो अत्यन्त प्राचीनतम कालसे ही विविध संस्कृतियोंकी जन्मभूमि रहा है और आज भी यहाँपर अनेक संस्कृतियां विद्यमान हैं। __ आप जब उनपर दृष्टिपात करेंगे तो आपको उनके दो पहलू देखनेको मिलेंगे। एक पहलू तो उस संस्कृतिके विशिष्ट तत्त्वज्ञानका होगा और दूसरा पहलू मानवप्राणियोंके जीवन-निर्माणके लिये उनके द्वारा निश्चित की गई आचारपद्धतिका होगा। सम्पूर्ण मानव-समष्टिमें सांस्कृतिक आधारको लेकर जितने समाज पाये जाते हैं उन सब समाजोंमेंसे जिस समाजका ढांचा जिस संस्कृतिके आधारपर निर्मित हुआ है उस समाजके प्रत्येक व्यक्तिका स्वाभाविकरूप से यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपनी संस्कृतिके तत्त्वज्ञानके प्रति दृढ़तम आस्था रखे तथा उसमें उपदिष्ट आचारपद्धतिके आधारपर यथाशक्ति अपनी जीवन-प्रवृत्तियोंके निर्माण करनेका प्रयत्न करे । यह तभी हो सकता है जब व्यक्तिको उस संस्कृतिके तत्त्वज्ञानका और आचार-पद्धतिका उपयोगी ज्ञान हो। सर्वसाधारणके लिये तत्त्वज्ञानका और आचार-पद्धतिका उपदेष्टा उस संस्कृतिके रहस्योंका ज्ञाता और व्याख्याता विद्वान ही होता है। अतः कोई भी व्यक्ति अपनी संस्कृतिके तत्त्वज्ञानके प्रति अन्तःकरणमें समापन्न आस्थासे चलायमान न हो जावे तथा उसमें उपदिष्ट आचार-पद्धतिकी उपेक्षा करके अपने जीवनको उच्छृखल न बना ले, इसका उत्तरदायित्त्व उस-उस संस्कृतिके मर्मको जाननेवाले विद्वानोंपर ही स्वाभाविकरूपसे आकर पड़ता है, यह बात हम सभी विद्वानोंको अच्छी तरह समझ लेना है। जैनसंस्कृतिका मूलभूत उद्देश्य जड़ पदार्थोके साथ बद्ध रहनेके कारण परतंत्र हुये संसारी आत्माको उन जड़ पदार्थोसे मुक्त यानी स्वतंत्र बनानेका है, लेकिन किसी भी संसारी प्राणीको जबतक आत्मस्वातंत्र्य प्राप्तिके साधन प्राप्त न हो जावें, तथा साधनोंके प्राप्त हो जानेपर भी वह प्राणी जबतक अपनी जीवनप्रवृत्तियोंको आत्म-स्वातंत्र्य प्राप्तिको दिशामें मोड़ न दे दे, तबतक उसे अपना लक्ष्य जीवनको सही ढंगसे सुख-पूर्वक व्यतीत करनेका बनाना चाहिये। १. सन् १९६५ में सिवनी (म०प्र०) में आयोजित भा० दि० जैन विद्वत्परिषदके दशम अधिवेशनके अध्यक्ष पदसे दिया गया अभिभाषण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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