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५ / साहित्य और इतिहास : २३
ऋषिप्रणीत ९३वे सूत्रसे' इस प्रकार न करके 'इसी ऋषिप्रणीत आगमपन्थसे अर्थात् क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओंके अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणा द्वारा इस प्रकार मान लिया जाय, तो उसके लिये अभीष्ट 'संयतपदका अभाव' भी सूत्र में बना रहता है और 'न' पद जोड़ कर एक वाक्यमें दो वाक्योंकी कल्पना भी उन्हें नहीं करनी पड़ती है। केवल 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः सिद्धयेत्' इस संपूर्ण वाक्यको आक्षेपपरक एक वाक्य मान करके पं० रामप्रसादजी शास्त्रीके अभिप्रायानुसार 'इसी आगमग्रन्थसे अर्थात क्षेत्रानुगम आदि प्ररूपणाओंके अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणा द्वारा द्रव्यस्त्रियोंकी मुक्तिका प्रसङ्ग हो सकता है । इस प्रकारके प्रकरणगत अर्थकी संगति बैठ जाती है। परन्तु पं० रामप्रसादजी शास्त्रोकी 'अस्मादेवार्षाद्' इस वाक्यको सूत्रोंके समूहरूप ग्रन्थपरक न मान कर केवल सूत्रपरक मानते हुए उसका 'इसी ९३वें सूत्ररूप आगमप्रमाणसे' ऐसा अर्थ करना [जो कि हमारी रायमें भी ठीक अर्थ है] इसलिये अभीष्ट है कि वे इसी आधारपर इस ९३वें सूत्र में विवादग्रस्त 'संयत' पदका अभाव सिद्ध करना चाहते हैं। लेकिन हमारी रायसे वे इसमें भी सफल नहीं हो सकते हैं।
पं० रामप्रसादजी शास्त्रीका खयाल है कि क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदिकी मनुष्यप्ररूपणाओं में केवल मनुष्यणी शब्द पाया जाता है इसलिये उन सूत्रोंमें इसका अर्थ भावस्त्री करना चाहिये और सत्प्ररूपणा के ९३ वें सूत्रमें मनुष्यणी शब्दका अर्थ द्रव्यस्त्री करना चाहिए, परन्तु उनका यह ख्याल गलत है क्योंकि सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि सभी प्ररूपणाओंमें 'मनुष्यणी' शब्दका अर्थ समानरूपसे पर्याप्तनामक कर्म, स्त्रीवेदनोकषाय और मनुष्यगतिनामकर्मके उदयवाला जीव' ही मुक्ति-पात्र तथा आगमसम्मत है और मनुष्यणी संज्ञावाले इस जीवके ही ९२ वें और ९३ वें सूत्रों द्वारा यदि वह निर्वृत्यपर्याप्तक हालतमें है तो प्रथम और द्वितीय गुणस्थानोंकी और यदि वह निवृत्त्यपर्याप्तक हालतको पारकर गया हो तो उसके प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ आदि सभी गुणस्थानोंकी संभावना बतलाई गई है। सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें 'मनुष्यणी' शब्दसे यदि सिर्फ द्रव्यस्त्रीको ही ग्रहण किया जाता है तो जो जीव दिगम्बर मान्यताके अनुसार द्रव्यसे पुरुष और भावसे स्त्री है उसका ग्रहण उक्त सूत्रमें पठित मनुष्यणी शब्दसे न हो सकनेके कारण उसकी निवृत्त्यपर्याप्तक हालतमें चतुर्थ गुणस्थानके प्रसंगको टालनेके लिये आगमका कौनसा आधार होगा, कारण कि दिगम्बर मान्यताके अनुसार कर्मसिद्धांतके आधारपर स्त्रीवेदोदयविशिष्ट पुरुषके भी निर्वृत्त्यपर्याप्तक हालतमें चतुर्थ गुणस्थान नहीं स्वीकार किया जाता है । इसलिये आगमग्रथोंमें जहां भी मनुष्यणोशब्दका उल्लेख पाया जाया है वहांपर उसका अर्थ 'पर्याप्तनामकर्म, स्त्रीवेदनोकषाय और मनुष्यगतिनामकमके उदयवाला जीव ही करना चाहिये । ऐसा अर्थ करनेमें सिर्फ एक यह शंका अवश्य उत्पन्न होती है कि स्त्रीवेदोदयविशिष्ट मनुष्यगतिनामकर्मके उदयवाले जीवके अधिक-से-अधिक नौ (९) गुणस्थान तक हो सकते हैं। इसलिये इस जीवके १४ गुणस्थानोंका कथन करना असंगत और आगमविरुद्ध है । लेकिन इसका समाधान उक्त ९३वें सूत्रकी धवला टीकामें कर दिया गया है कि यहाँपर मनुष्यगतिनामकर्मका उदय प्रधान है और स्त्रीवेदनोकषायका उदय इसका विशेषण है। इसलिये विशेषणके नष्ट हो जानेपर भी विशेष्यका सद्भाव बना रहनेके कारण ही मनुष्यणीके १४ गुणस्थानोंकी सम्भावना बतलायी गयी है ।
इस प्रकार जब उक्त ९३वे सूत्र में 'मनुष्यणी' शब्दसे स्त्रीवेदोदयविशिष्ट द्रव्यपुरुषका ग्रहण भी अभीष्ट है तो क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओंके अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणावाले सूत्रोंके साथ सामञ्जस्य बिठलानेके लिये इस सूत्र में भी संयतपदका सद्भाव अनिवार्य रूपसे स्वीकार करना पड़ता है और तब पं. रामप्रसादजी शास्त्रीने उक्त ९३वें सूत्रमें संयतपदका अभाव सिद्ध करनेके लिये जिन दलीलोंका उपयोग किया है वे सब निःसार हो जाती हैं।
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