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________________ षट्खण्डागमके 'संजद' पदपर विमर्श [ यह लेख साहित्यिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओंके ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे आज भी महत्त्वपूर्ण है । ] अर्सेसे प्रोफेसर हीरालालजी जैनके "क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके शासनोंमें कोई मौलिक भेद है ?" शीर्षक वक्तव्यपर उनके और दिगम्बर जैन समाजके बीच विवाद चल रहा है। दिगम्बर समाजने प्रोफेसर साहबके वक्तव्यको दिगम्बर मान्यताओंके मूलपर एक आघात समझा है। उसकी धारणा है कि यदि इस वक्तव्यका निराकरण न करके इसके प्रति उपेक्षा धारण कर ली जाय, तो भविष्यमें दिगम्बर मान्यताओंके प्रति जनसाधारणका अविश्वास हो सकता है। किसी भी संस्कृतिककी उपासक समष्टि उस संस्कृतिको जहाँ अपने कल्याणका साधन समझती है वहाँ उसकी सन्तान और दूसरे-दूसरे लोग भी उस संस्कृतिसे अपना कल्याण कर सकें, यह भावना भी उसमें स्वाभाविक तौरपर विद्यमान रहती है। यही एक आधार है कि प्रत्येक समष्टिके ऊपर अपनी-अपनी संस्कृतिके संरक्षण और प्रसारका भार बना हआ है। इस दृष्टिसे प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्यके विरुद्ध दिगम्बर समाजका आवाज उठाना जहाँ न्याय-संगत माना जा सकता है वहाँ यह मानना भी न्याय्य है कि प्रोफेसर साहबने अपनी बुद्धिपर भरोसा करके दिगम्बर आगमग्रन्थोंका एक निष्कर्ष निकालने और उस निष्कर्षको समाजके सामने रखनेका जो प्रयत्न किया है वह उनके भी स्वतंत्र अधिकारकी बात है। फिर जिस विषयको एक निष्कर्ष के रूपमें प्रोफेसर साहबने समाजके सामने उपस्थित किया है वह विषय संदिग्धरूपसे न मालूम कितने आगमके अभ्यासी व्यक्तियोंके हृदयमें विद्यमान होगा। इसलिये प्रोफेसर साहबके इस प्रयत्नसे वक्तव्यसंग्रहीत विषयोंको आगमग्रन्थोंके निर्विवाद अर्थों द्वारा एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचा देनेका योग्य अवसर ही समझना चाहिये था। परन्तु हम देखते हैं कि प्रोफेसर साहब और उनके सहयोगियों तथा दिगम्बर समाजके विचारोंका प्रतिनिधित्व करनेवाले विषयके अधिकारीवर्गके बीच लम्बे अर्सेसे चल रहे वाद-विवादके बाद भी उभयपक्षके बहुत कुछ अनुचित प्रयत्नों द्वारा परस्पर कटुता बढ़नेके अतिरिक्त कोई लाभ नहीं हुआ है । और यही कारण है कि इस तथ्यहीन वाद-विवादसे ऊबकर 'जैनमित्र' के सम्पादक महोदयको बाध्य होकर यह लिखना पड़ा है कि इस विवादसे सम्बन्ध रखनेवाले किसी भी लेखको 'जनमित्र' में स्थान नहीं दिया जायगा। तात्पर्य यह है कि कोई भी विषय जब पक्ष और विपक्षके झमेले में पड़ जाता है तो वहाँ विचारकी दृष्टि जाती रहती है और मान-अपमानका प्रश्न खड़ा हो जाता है, इसलिये उभय पक्षकी ओरसे प्रधानतया अपना प्रभाव अक्षुण्ण रखने तथा दूसरे पक्षका प्रभाव नष्ट करनेका ही प्रयत्न होने लगता है। दूसरे-दूसरे बाह्य कारणोंके साथ यह एक अतरंग कारण है कि इस विषयमें हम अभी तक मौन रहते आये है। लेकिन आज हम जो अपने विचारोंको नहीं दबा सक रहे हैं उसका कारण यह है कि हमारे सामने एक तो श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका वह लेख है जो उन्होंने श्री प्रेमीजीके "अन्यायका प्रमाण मिल गया' शीर्षक लेखके ऊपर जैनमित्रमें लिखा है और दूसरे दिगम्बर जैन समाज बम्बईकी ओरसे प्रकाशित दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पणके वे दोनों भाग हैं जिनमें भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा श्री प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्य तथा दसरे वक्तव्योंके विरोधमें लिखे गये लेखोंका संग्रह है। श्री प्रेमीजीने अपने उक्त लेखमें यह लिखा था कि सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें प्रोफेसर साहबने लेखकोंकी गलतीसे 'संयत' पद छूट जानेकी जो कल्पना की है वह सही है और वह पद मूडबिद्रीकी प्रतिमें मौजूद है। इसपर श्री मुख्तारसाहबने अपने लेखमें कई आनुषंगिक शंकायें उपस्थित को है और उनके निराकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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