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________________ ८: सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीषर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ भौतिकताके भेदको समझनेका एक ही आधार हो सकता है कि जिस कार्य के अन्दर आत्माके लौकिक लाभको दृष्टि अपनायी जाती है वह कार्य आध्यात्मिक और जिस कार्यमें इस तरहके लाभकी दृष्टि नहीं अपनायी जाती है, या जो कार्य निरुद्दिष्ट किया जाता है वह भौतिक माना जायगा। यद्यपि यह सभव है कि आत्मा या लोकके लाभकी दृष्टि रहते हुए भी कामें ज्ञानकी कमीके कारण उसके द्वारा किया गया कार्य उन्हें अलाभकर भी हो सकता है परन्तु इस तरहसे उसकी लाभसम्बन्धी दृष्टिमें कोई अन्तर नहीं होनेके कारण उसके उस कार्यकी आध्यात्मिकता अक्षुण्ण बनी रहती है। अतः आत्मतत्त्वको नहीं स्वीकार करनेवाली चार्वाक जैसी संस्कृतियोंकी आध्यात्मिक संस्कृतियाँ मानना अयुक्त नहीं है। यह कथन तो मैंने एक दृष्टिसे किया है । इस विषयमें दूसरी दृष्टि यह है कि कुछ लोग आध्यात्मिकता और भौतिकता इन दोनोंके अन्तरका इस तरह प्रतिपादन करते हैं कि जो संस्कृति आत्मतत्त्वको स्वीकार करके उसके कल्याणका मार्ग बतलाती है वह आध्यात्मिक संस्कृति है और जिस संस्कृतिमें आत्मतत्त्वको ही नहीं स्वीकार किया गया है वह भौतिक संस्कृति है। इस तरह आत्मतत्त्वको मानकर उसके कल्याणका मार्ग बतलाने वाली जितनी संस्कृतियां है वे सब आध्यात्मिक और आत्मतत्त्वको नहीं माननेवाली जितनी संस्कृतियाँ हैं वे सब भौतिक संस्कृतियाँ ठहरती है। इस विचारधारासे भी मेरा कोई मतभेद नहीं है, कारण कि यह कथन केवल दृष्टिभेदका ही सूचक है-आध्यात्मिकता और भौतिकताके मूल आधारमें इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। आध्यात्मिकता और भौतिकताके अन्तरको बतलानेवाला एक तीसरा विकल्प इस प्रकार है-एक ही संस्कृतिके आध्यात्मिक और भौतिक दोनों पहल हो सकते हैं। संस्कृतिका आध्यात्मिक पहलू वह है जो आत्मा या लोकके लाभालाभसे सम्बन्ध रखता है और भौतिक पहलू वह है जिसमें आत्मा या लोकके लाभालाभका कुछ भी ध्यान नहीं रखकर केवल वस्तुस्थितिपर ही ध्यान रखा जाता है । इस विकल्पमें जहाँतक वस्तुस्थितिका ताल्लुक है उसमें विज्ञानका सहारा तो अपेक्षणीय है ही, परन्तु विज्ञान केवल वस्तुस्थितिपर तो प्रकाश डालता है, उसका आत्मा या लोकके लाभालाभसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता है । तात्पर्य यह है कि विज्ञान केवल वस्तुके स्वरूप और विकासपर ही नजर रखता है, भले ही उससे आत्माको या लोकको लाभ पहुँचे या हानि पहुँचे। लेकिन आत्मकल्याण या लोककल्याणकी दृष्टिसे किया गया प्रतिपादन या कार्य वास्तविक ही होगा, यह नियम नहीं है वह कदाचित् अवास्तविक भी हो सकता है, कारण कि अवास्तविक प्रतिपादन भी कदाचित् किसी किसीके लिये लाभकर भी हो सकता है। जैसे सिनेमाओंके चित्रण, उपन्यास या गल्प वगैरह अवास्तविक होते हए भी लोगोंकी चित्तवृत्तिपर असर तो डालते ही हैं। तात्पर्य यह है कि चित्रण आदि वास्तविक न होते हए यदि उनसे अच्छा शिक्षण प्राप्त किया जा सकता है तो फिर उनकी अवास्तविकताका कोई नहीं रह जाता है। जैन संस्कृतिके स्तुतिग्रन्थोंमें जो कहीं कहीं ईश्वरकतत्त्वकी झलक दिखाई देती है वह इसी दष्टिका परिणाम है जबकि विज्ञानकी कसोटीपर खरा न उतर सकनेके कारण ईश्वरकतत्ववादका जैन दार्शनिक ग्रन्थोंमें जोरदार खण्डन मिलता है और इसी दृष्टिसे ही जैन संस्कृतिमें अज्ञानी और अल्पज्ञानी रहते हुए भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी माना गया है। जबकि वास्तविकताके नाते जीव बारहवें गणस्थानतक अज्ञानी या अल्पज्ञानी बना रहता है। इस विकल्पके आधारपर जैन संस्कृतिको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है-एक आध्यात्मिक और दूसरा भौतिक । जैन संस्कृतिके उक्त प्रकारसे आध्यात्मिक और भौतिक ये दो भाग तो हैं ही, परन्तु सभी संस्कृतियोंके समान इसका एक तीसरा भाग आचार या कर्त्तव्यसम्बन्धी भी है। इस तरह समूची जैन संस्कृतिको यदि विभक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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