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________________ समयसारकी रचनामें आचार्य कुन्दकुन्दकी दृष्टि समयसारका आलोडन करनेसे मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि उसकी रचना आचार्य कुन्दकुन्दने इस दृष्टिसे की है कि सम्पूर्ण मानवसमष्टि इसे पढ़कर इसके अभिप्रायको समझें और उस अभिप्रायके अनुसार अपनी जीवनप्रवृत्तियोंको नैतिक रूप देनेका दृढ़ संकल्प करें, जिससे वे जीवनके अन्ततक सुखपूर्वक जिन्दा रह सकें। इस प्रकार अपनी जीवनप्रवृत्तियोंको नैतिक रूप देनेवाली मानवसमष्टिमेंसे जो मानव जितने परिणाम में अपनी मानसिक, वाचनिक और कायिक स्वावलम्बनताका अपने में विकास कर ले, उतना वह आध्यात्मिक (आत्म-स्वातन्त्र्यके) मार्गका पथिक बन सकता है। जीवके भेद जैनशासनमें जीवोंके संसारी और मुक्त दो भेद बतलाये गये हैं। (देखो, त. सू., अ. २ का 'संसारिणो मुक्ताश्च" सू० १०)। इस सूत्रसे यह भी ज्ञात होता है कि संसारकी समाप्तिका नाम ही मुक्ति है और जो जीव संसारसे मुक्त हो जाते हैं, वे ही सिद्ध कहलाते हैं । जैनशासनके अनुसार कोई भी जीव अनादिसिद्ध नहीं है। जैसा कि इतर दार्शनिकोंने माना है। संसारी जीवोंके भेद जैनशासनके अनुसार संसारी जीव भी भव्य और अभव्य दो प्रकारके हैं। उनमेंसे भव्य जीव वे हैं जिनमें संसारसे मुक्त होनेकी स्वभावसिद्ध योग्यता विद्यमान हो और अभव्य जीव वे हैं, जिनमें उस स्वभावसिद्ध योग्यताका सर्वथा अभाव हो । भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव अनादिकालसे पौद्गलिक कर्मोसे बद्ध होनेके कारण उन कर्मों के प्रभाव से अनादिकालसे ही यथायोग्य नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार गतियोंमें परिभ्रमण करते आये हैं और अपनी स्वावलम्बनशक्तिको भूलकर यथासंभव मानसिक, वाचनिक और कायिक परावलम्बनताकी स्थितिमें रहते आये हैं, तथा मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायके प्रभाव में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें रहते हए सतत मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक अनैतिक (मिथ्या) आचरण करते आये हैं। ऐसे जीवोंको समयसार गाथा १२ से लेकर गाथा २३ तक अपनेसे भिन्न पदार्थों में अहंबुद्धि और ममबुद्धि होनेके कारण अप्रतिबुद्ध प्रतिपादित किया गया है। तथा ये जीव अप्रतिबुद्ध क्यों हैं, इस बातको समयसार गाथा २४ और २५ में आगम और तर्कके आधारपर सिद्ध किया गया है । __यद्यपि नरक, निर्यञ्च, मनुष्य और देव इन सभी गतियोंके जीव इस प्रकारसे अप्रतिबुद्ध हो रहे हैं, और सभी गतियोंके बहुतसे जीव इस अप्रतिबद्धताको समाप्त कर प्रतिबुद्ध भी हो सकते हैं, परन्तु जीवोंको मक्तिकी प्राप्ति मनुष्यगतिसे ही हो सकती है। इसलिए समयसारमें जो विवेचन किया गया है वह मानवसमष्टिको लक्ष्यमें रखकर ही किया गया है। जैनशासनके अनुसार भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव मुक्तिके मार्गमें प्रवेश कर सकते हैं, - क्योंकि न तो भव्य जीव अपनी भव्यताकी पहिचान कर सकते हैं और न अभव्य जीव अपनी अभव्यताकी पहिचान कर सकते हैं इसलिए भव्य जीवोंके समान अभव्य जीव भी अपनेको भव्य समझकर मुक्तिके मार्गमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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