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________________ ४ | दर्शन और न्याय : ८३ इसमें लक्षक होता है । 'दण्डः पुरुषस्य' इस लक्षणमें यदि एकाधारवृत्तित्वलक्षण सामानाधिकरण्य नहीं है तो एकार्थप्रतिपादकत्वलक्षण सामानाधिकरण्य भी नहीं है। जिस तरह 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं', इस लक्षणमें भी जो सम्यग्ज्ञानपदवाच्य है वही तो प्रमाणपदवाच्य है या जो प्रमाणपदवाच्य है वही तो सम्यग्ज्ञानपद वाच्य है ऐसा एकार्थप्रतिपादकत्वेन सामानाधिकरण्य होता है वैसा 'दण्डःपुरुषस्य' यहाँपर “जो पुरुषपदवाच्य है वही दण्डवत्वपदवाच्य है या जो दण्डवत्वपदवाच्य है वही पुरुषपदवाच्य" ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि दण्डवत्वाभावमें भी पुरुष और पुरुषाभावमें भी दण्डवत्व हो सकता है। परन्तु आत्मभूतलक्षणमें सामानाधिकरण्य होना अत्यावश्यक है। वह सामानाधिकरण्य यदि एकार्थप्रतिपादकत्वेन हो सकता है तो एकाधारवृत्तित्वेन होने में कोई बाधा नहीं है क्योंकि आत्मभूतलक्षण वस्तुस्वरूपात्मक होता है। स्वरूपसे कथंचित्तादात्म्य रखनेवाली वस्तुओंमें भिन्नाधिकरणता संभव ही नहीं है अन्यथा स्वरूप-स्वरूपवद्भाव ही न हो सकेगा। यह आपत्ति भी ठीक नहीं है कि दूध और जलमें एक भाजनवृत्तित्वेन सामानाधिकरण्य एवं रूप और रसमें अभिन्नद्रव्याधारतया सामानाधिकरण्य जब है तो लक्ष्यलक्षणभाव होना चाहिये, क्योंकि लक्ष्यलक्षणभाव व्याप्य है सामानाधिकरण्य व्यापक; इसलिये जहाँ-जहाँ लक्ष्यलक्षणभाव (आत्मभूतीय) होगा वहाँवहाँपर सामानाधिकरण्य अवश्य होगा, किन्तु सामानाधिकरण्य होनेपर लक्ष्यलक्षणभाव होना जरूरी नहीं है। _ 'अग्नेरोष्ण्यं' यहाँपर एकाधिकरण है क्योंकि जो औषण्यका आधार है वही तो अग्निका है कथंचित्तादात्म्य होनेसे भिन्नाधिकरणता कदापि सम्भव नहीं', अन्यथा गुणगणिभावका लोप हो जायगा । नैयायिकके यहाँ द्रव्य, गुण, कर्म आदि स्वतंत्र पदार्थ हैं । इनमें समवायसम्बन्ध होता है कथंचित् तादात्म्यसम्बन्ध उसने माना नहीं है। इसलिये उसके यहाँ द्रव्यका लक्षण द्रव्यमें रहेगा तो द्रव्य अपने अवयवोंमें, इस तरह भिन्नाधिकरणता, गुणका लक्षण गुणमें, गुण द्रव्यमें इस तरह भिन्नाधिकरणता, कर्मका लक्षण कर्ममें, कर्म द्रव्यमें इस तरह भिन्नाधिकरणता सर्वत्र बनी रहती है, इसलिये असम्भवदोष बाधित लक्ष्यवृत्ति होनेसे आ जाता है। न्यायदीपिकाकारने आत्मभूतलक्षणको जो पृथक् किया है उसका अन्तरंगकारण सामानाधिकरण्यकी आवश्यकता ही है । आशा है कि इस ग्रन्थको लगाते समय इन बातोंका ध्यान अवश्य रखा जायगा । जैनमित्र, ता० ८ जून सन् १९३३, अंक ३२ वर्ष ३४ में प्रकाशित । इसका उत्तर हमने निम्नलिखित दिया। बन्धवर पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थ न्यायाध्यापक स्या० महाविद्यालय काशीने मेरे द्वारा किये गये न्यायदीपिकाके अर्थमें मतभेद दिखलाते हुए कुछ विचार प्रकट किये हैं। पं० जीका आशय है कि "आत्मभूतलक्षणमें मामानाधिकरण होना आवश्यक है वह एकार्थप्रतिपादकत्वरूप या एकाधारवृत्तित्वरूप हो सकता है। अनात्मभूतलक्षणमें सामानाधिकरण्य आवश्यक नहीं, चाहे वह एकार्थप्रतिपादकत्वरूप हो या एकाधारवृत्तित्वरूप हो ।" यह बात ध्यानमें रखना चाहिये कि एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य शब्दवृत्ति है, इसलिये वह लक्ष्यवचन और लक्षणवचनमें रहेगा, एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्य अर्थवृत्ति है, इसलिये वह लक्ष्यवस्तु और लक्षणवस्तुमें पाया जायगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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