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________________ ४/ दर्शन और न्याय : ७७ चार्वाक दर्शनमें इन पांचों तत्त्वोंको स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि ये पांचों तत्त्व परलोक तथा मुक्ति की मान्यतासे ही सम्बन्ध रखते हैं। मोमांसादर्शनमें इनमेंसे आदिके तीन तत्त्व स्वीकृत किये गये हैं, क्योंकि आदिके तीन तत्त्व परलोककी मान्यतासे सम्बन्ध रखते है और मीमांसादर्शनमें परलोककी मान्यताको स्थान प्राप्त है । परन्तु वहाँ पर ( मीमांसादर्शनमें ) भी मुक्तिकी मान्यताको स्थान प्राप्त न होनेके कारण अन्तके दो तत्त्वोंको नहीं स्वीकार किया गया है। शेष सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय और वैशेषिक तथा जैन और वौद्धदर्शनमें इन पाँचों तत्त्वोंको स्वीकार गया गया है, क्योंकि इन दर्शनोंमें परलोक और मुक्ति दोनोंकी मान्यताको स्थान प्राप्त है। जैन संस्कृतिकी जीव, अजीव. आस्रव. बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षस्वरूप सप्ततत्त्ववाली जिस पदार्थमान्यताका उल्लेख लेखमें किया गया है उसमें उक्त दर्शनोंको स्वीकृत इन पांचों तत्त्वोंका हो समावेश किया गया है अर्थात् सप्ततत्त्वोंमें स्वीकृत प्रथम जीवतत्त्वसे चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वका अर्थ लिया गया है, द्वितीय अजीवतत्त्वसे उक्त कार्माणवर्गणांका अर्थ स्वीकार करते हुए इन दोनों अर्थात् चित्शक्तिविशिष्टतत्त्व स्वरूप जोवतत्त्व और काणिवर्गणास्वरूप अजीवतत्त्वकी सम्बन्धपरम्परारूप मूल संसारको चौथे बन्धतत्त्वमें समाविष्ट करके चितशक्तिविशिष्टतत्त्वके शरीरसम्बन्धपरंपरारूप अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप संसारको इसीका विस्तार स्वीकार किया गया है। तीसरे आस्रवतत्त्वसे उक्त जीव और अजीव दोनों तत्त्वोंकी सम्बन्धपरंपरारूप मूल संसारमें कारणभूत प्राणियोंके मन, वचन और शरीर सम्बन्धी पुण्य एवं पापरूप कार्योंका बोध होता है। तत्त्वव्यवस्थामें बन्ध तत्त्वको चौथा और आस्रवतत्त्वको तीसरा स्थान देनेका मतलब यह है कि बन्धरूप संसारका कारण आस्रव है इसलिये कारणरूप आस्रवका उल्लेख कार्यरूप बन्धके पहले करना ही चाहिये और चूंकि इस तत्त्वव्यवस्थाका लक्ष्य प्राणियोंका कल्याण ही माना गया है तथा प्राणियोंकी हीन और उत्तम अवस्थाओंका ही इस तत्त्वव्यवस्थासे हमें बोध होता है । इसलिये तत्त्वव्यवस्थाका प्रधान आधार होनेके कारण इस तत्त्वव्यवस्थामें जीवतत्त्वको पहला स्थान दिया गया है। जीवतत्त्वके बाद दूसरा स्थान अजीवतत्त्वको देनेका सबब यह है कि जीवतत्त्वके साथ इसके (अजीवतत्त्वके) संयोग और वियोग तथा संयोग और वियोगके कारणोंको ही शेष पाँच तत्त्वोंमें संगृहीत किया गया है । सातवें मोक्षतत्त्वसे कर्मसम्बन्धपरंपरासे लेकर शरीरसम्बन्धपरंपरा अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेद अर्थ लिया गया है और चूंकि प्राणियोंकी यह अन्तिम प्राप्य और अविनाशी अवस्था है इसलिये इसको तत्त्वव्यवस्था अन्तिम सातवां स्थान दिया गया है। __ पाँचवें संवरतत्त्वका अर्थ संसारके कारणभूत आस्रवका रोकना और छठे निर्जरातत्त्वका अर्थ संबद्ध कर्मों अर्थात् संसारको समूल नष्ट करनेका प्रयत्न करना स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि जब पूर्वोक्त संसारके आत्यन्तिक विनाशका नाम मुक्ति है तो इस प्रकारकी मुक्तिकी प्राप्तिके लिए हमें संसारके कारणोंका नाश करके संसारके नाश करनेका प्रयत्न करना होगा, संवर और निर्जरा इन दोनों तत्त्वोंकी मान्यताका प्रयोजन यही है और चंकि इन दोनों तत्त्वोंको सातवें मोक्षतत्त्वकी प्राप्तिमें कारण माना गया है, इसलिये तत्त्वव्यवस्थामें मोक्षतत्त्वके पहले ही इन दोनों तत्वोंको स्थान दिया गया है। संवरको पाँचवाँ और निर्जराको छठा स्थान देनेका मतलब यह है कि जिस प्रकार पानीसे भरी हुई नावको डूबनेसे बचानेके लिये नावका बुद्धिमान मालिक पहले तो पानी आने में कारणभूत नावके छिद्रको बंद करता है और तब बादमें भरे हुए पानीको नावसे बाहर निकालनेका प्रयत्न करता है उसी प्रकार मुक्तिके इच्छुक प्राणीको पहले तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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