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________________ ४ / दर्शन और न्याय : ७३ ३. सप्ततत्त्व ऊपर बतलाये गये दर्शनोंमें परलोक, स्वर्ग, नरक और मुक्तिकी मान्यताके विषयमें जो मतभेद पाया जाता है उसके आधारपर उन दर्शनोंमें लोककल्याणकी सीमा भी यथासंभव भिन्न-भिन्न प्रकारसे निश्चित की गयी है । चार्वाकदर्शनमें प्राणियोंका जन्मान्तररूप परलोक, पुण्यका फल परलोकमें सुखप्राप्तिका स्थान स्वर्ग, पापका फल परलोकमें दुःखप्राप्तिका स्थान नरक और प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परम्परारूप संसारका सर्वथा विच्छेदस्वरूप निःश्रेयसका स्थान मुक्ति इन तत्त्वोंकी मान्यता नहीं है इसलिये वहाँपर लोककल्याणकी सीमा प्राणियोंके और विशेषकर मानवसमाजके वर्तमान जीवनकी सुख-शान्तिको लक्ष्य करके ही निर्धारित की गयी है और इसी लोककल्याणको ध्यानमें रखकरके ही वहाँ पदार्थों की व्यवस्थाको स्थान दिया गया है । मीमांसादर्शनमें यद्यपि प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेद स्वरूप निःश्रेयस और उसका स्थान मक्ति इन तत्त्वोंकी मान्यता नहीं है। वहाँपर स्वर्गसुखको ही निःश्रेयस पदका और स्वर्गको ही मुक्तिपदका वाच्य स्वीकार किया गया है, फिर भी प्राणियोंका जन्मान्तररूप परलोक, पुण्यका फल परलोकमें सुखप्राप्तिका स्थान स्वर्ग और पापका फल परलोकमें दुःखप्राप्तिका स्थान नरक इन तत्त्वोंको वहाँ अवश्य स्वीकार किया गया है। इसलिये वहाँपर लोककल्याणकी सीमा प्राणियोंके वर्तमान (ऐहिक) जीवनके साथ-साथ परलोककी सुखशान्तिको ध्यानमें रखकर निर्धारित की गई है और इसी लोककल्याणको ध्यानमें रखकरके ही वहाँ पदार्थ-व्यवस्थाको स्थान दिया गया है। चार्वाक और मीमांसा दर्शनोंके अतिरिक्त शेष उल्लिखित वैदिक और अवैदिक सभी दर्शनोंमें उक्त प्रकारके परलोक, स्वर्ग और नरककी मान्यताके साथ-साथ प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेदस्वरूप निःश्रेयस और निःश्रेयसका स्थान मक्तिकी मान्यताको भी स्थान प्राप्त है। इसलिये इन दर्शनोंमें लोककल्याणकी सीमा प्राणियोंके ऐहिक और पारलौकिक सुख-शान्तिके साथ-साथ उक्त निःश्रेयस और मुक्तिको भी ध्यानमें रखते हुए निर्धारित की गयी है और इसी लोककल्याणके आधारपर ही इन दर्शनों में पदार्थव्यवस्थाको स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि चार्वाक दर्शनको छोड़कर परलोकको माननेवाले मीमांसादर्शनमें और परलोकके साथ-साथ मुक्तिको भी माननेवाले सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध दर्शनोंमें जगत्के क प्राणीके शरीरमें स्वतंत्र और शरीरके साथ घल-मिल करके रहनेवाला एक चितशक्तिविशिष्ट तत्त्व स्वीकार किया गया है। यद्यपि सर्वसाधारण मनुष्योंके लिये इसका प्रत्यक्ष नहीं होता है और न ऐसा कोई विशिष्ट पुरुष ही वर्तमानमें मौजूद है जिसको इसका प्रत्यक्ष हो रहा हो । परन्तु इतना अवश्य है कि प्रत्येक प्राणीमें दूसरे प्राणियोंकी प्रेरणाके बिना ही जगत्के पदार्थों के प्रति राग, द्वेष या मोह करना अथवा विरक्ति अर्थात् समताभाव रखना, तथा हर्ष करना, विषाद करना दूसरे प्राणियोंका अपकार करना, पश्चात्ताप करना, परोपकार करना, हंसना, रोना, सोचना, समझना, सुनना, देखना, सूंघना, खाना, पीना, बोलना, बैठना, चलना, काम करना, थक जाना, विक्षान्ति लेना, पुनः काममें जुट जाना, सोना, जागना और पैदा होकर छोटेसे बड़ा होना इत्यादि यथासंभव जो विशिष्ट व्यापार पाये जाते हैं वे सब व्यापार प्राणिवर्गको लकड़ी, मिट्टी, पत्थर, मकान, कपड़ा, बर्तन, कुर्सी, टेबुल, सोना चाँदी, लोहा, पीतल, घंटी, घड़ी, ग्रामोफोन, रेडियो, सिनेमाके चित्र, मोटर, रेलगाड़ी, टेंक, हवाई जहाज और उड़नबम आदि व्यापारशून्य तथा प्राणियोंकी प्रेरणा पाकर व्यापार करनेवाले पदार्थोंसे पृथक कर देते है और इन व्यापारोंके आधारपर ही उक्त दर्शनोंमें यह स्वीकार कर लिया गया है कि प्रत्येक प्राणीके शरीरमें शरीरसे पृथक् एक-एक ऐसा तत्त्व भी विद्यमान है, जिसकी प्रेरणासे ही प्रत्येक प्राणीमें उल्लिखित विशिष्ट व्यापार हुआ करते हैं । इस तत्त्वको समी दर्शन, चित् ४-१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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