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________________ ४ | दर्शन और न्याय : ६३ विधीयमाननिषिध्यमानधर्मविकल्पापेक्षया तदविरोधात् । “प्रतिपर्यायं सप्तभंगी वस्तुनि" इति वचनात् । तथानन्ताः सप्तभंग्यो भवेयुरित्यपि नानिष्टम् ।" ( श्लं न्ताः सप्तभग्या भवयुरित्याप नानिष्टम् ।" (श्लोकवा०, सूत्र ६, वा० ५२ के आगे सप्तभंगी प्रकरण) इस उद्धरणका भाव यह है कि जैनदर्शनमें वस्तुगत परस्परविरोधी धर्मद्वयके आधारपर सप्तभंगी को मान्यता दी गयी है। इसपर कोई यह आपत्ति करता है कि एक वस्तु में कथन करने योग्य जब अनन्त धर्म विद्यमान हैं तो इन सब धर्मोका कथन करनेके लिये स्यादादियों (जैनों के सामने अनन्तसंख्याक वचन मार्गोंकी प्रसक्ति होती है, केवल सात ही वचनमार्गोंकी नहीं. क्योंकि जितने वाच्य हो सकते हैं उतने ही वाचक होने चाहिये, अतः सप्तभंगीकी मान्यता असंगत है। इस आपत्तिका उक्त उद्धरणमें जो कुछ समाधानके रूपमें लिखा गया है उसका भाव यह है कि सप्तभंगीकी मान्यता विधीयमान और निषिध्यमान धर्मद्वयके विकल्पोंके आधारपर ही जैनदर्शनमें स्वीकृत की गयी है इसलिए एक ही वस्तुमें विद्यमान अनन्तधर्मोंमेंसे प्रत्येक धर्मको लेकर विधीयमान और निषिध्यमान धर्मद्वयके विकल्पोंके आधारपर जैन दर्शनमें सप्तभंगीको स्थान प्राप्त हो जानेसे अनन्तभंगीके बजाय अनन्तसप्तभंगीकी स्वीकृति स्याद्वादियों (जैनों) के लिए अनिष्ट नहीं है। इस प्रकार वस्तुगत अनन्तधर्मसापेक्ष परस्परविरोधी धर्मद्वयके प्रत्येक वस्तुमें निष्पन्न अनन्तविकल्पोंमेंसे आचार्य श्रीअमृतचन्द्रने समयसारके स्याद्वादाधिकार प्रकरणमें अनेकान्तका स्वरूप प्रदर्शित करते हए कतिपय विरोधी धर्मद्वयविकल्पोंकी निम्न प्रकार गणना को है "यदेव तत् तदेवातत्, यदेवकं तदेवानेकन्, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्त ।" अर्थ-जो ही वह है वही वह नहीं है, जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है, जो ही सत् है वही सत् नहीं है अर्थात् असत् है, जो ही नित्य है वही नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है इस प्रकार एक ही वस्तुके वस्तुत्व (स्वरूप) को निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तिद्वयका प्रकाशन करना अनेकान्त कहलाता है । __ अनेकान्तके इसमें चार विकल्प बतलाये हैं । इन चारों विकल्पोंमेंसे “जो ही वह है वही वह नहीं है" इस विकल्पका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् आकृति प्रकृति और विकृतिके आधारपर ही विश्वमें अपना अस्तित्व जमाये हुए हैं । आकृतिसे वस्तुकी द्रव्यरूपता (प्रदेशवत्ता) का ग्रहण होता है, प्रकृतिसे उसकी गुणरूपता (स्वभावशक्ति) का ग्रहण होता है और विकृतिसे उसमें होनेवाली परिणति (पर्याय) का ग्रहण होता है। जैसाकि आचार्यश्री कुन्दकुन्दने प्रवचनसार ग्रन्थके ज्ञेयाधिकारकी गाथा १ में दर्शाया है। यथा अत्थो खलु दव्वमयो दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पज्जायाः पज्जयमूढ़ा हि परसमयाः ॥ अर्थ-अर्थ अर्थात् पदार्थ यानी वस्तु द्रव्यरूप है अर्थात् किसी-न-किसी आकृतिको धारण किए हुए है, द्रव्यमें अपनी गुणरूपता (स्वभावशक्ति) पायी जाती है तथा द्रव्य और गुण दोनों ही परिणमन अर्थात् पर्यायरूपताको धारण किए हुए हैं। लोकमें जितना भी परसमय पाया जाता है वह सब पर्यायोंमें ही रमकर मूढ़ताको प्राप्त हो रहा है। प्रत्येक वस्तुकी आकृति अर्थात् द्रव्यरूपता (प्रदेशवत्ता), प्रकृति अर्थात् स्वभावशक्तिरूप गुणरूपता और विकृति अर्थात् परिणति क्रियारूप पर्यायरूपता प्रतिनियत है अर्थात् एक वस्तुकी जो आकृति, प्रकृति और विकृति है वह त्रिकालमें कभी भी दूसरी वस्तुको न तो हुई है और न हो सकती है। अतः इस स्थितिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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