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३६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
कि प्रत्येक द्रव्यमें अनेक गण विद्यमान रहते है तथा प्रत्येक द्रव्य व प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक गुण की क्रमवर्ती अनेक पर्यायें हुआ करती है। इस आधारपर ही जैनदर्शनमें यह सिद्धान्त स्थिर किया गया है कि 'जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है।'
प्रत्येक वस्तुकी सत्ताका निर्णय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव (अवस्था) के आधार ही हुआ करता है । इनमेंसे द्रव्यके आधारपर वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि प्रत्येक वस्तुके अपने-अपने जो और जितने प्रदेश है वह उन्हीं और उतने प्रदेशोंके रूपमें सत् है, उन प्रदेशोंसे भिन्न अन्य प्रदेशोंके रूपमें वह सत् नहीं है अर्थात् असत् है । क्षेत्रके आधारपर वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि जो वस्तु आकाशके जिन और जितने प्रदेशोंपर स्थित है वह आकाशके उन और उतने ही प्रदेशोंपर सत है, उन प्रदेशोंसे भिन्न आकाशके अन्य प्रदेशोंपर वह सत नहीं है अर्थात असत है। कालद्रव्यके आधारपर वस्तकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार है कि जिन और जितने कालाणुओंसे वस्तु संबद्ध है वह उन और उतने कालाणुओंपर सत् है, उन कालाणुओंसे भिन्न अन्य कालाणुओंपर सत् नहीं है अर्थात् असत् है । व्यवहारकालके आधारपर भी जिस समय वस्तु विद्यमान है वह उस समय सत् है, अन्य कालमें वह असत् है। इसी तरह भावके आधारपर भी वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि कोई भी वस्तु अपनी जिस अवस्थामें विद्यमान है वह उसी अवस्थामें सत् है, उससे भिन्न अन्य अवस्थामें वह सत् नहीं है अर्थात . आचार्य श्री अमतचन्द्रने अनेकान्तका लक्षण बतलाते हए उल्लिखित विकल्पोंके साथ एक चौथा विकल्प यह भी बतलाया है कि जो ही नित्य है वही नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है। इसका स्पष्टोकरण यह है कि प्रत्येक वस्तु पूर्वोक्त प्रकारसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित है क्योंकि वह द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपताको धारण किये हुये है। वस्तुका जहाँ तक द्रव्यरूपता और गुणरूपतासे सम्बन्ध है वहाँ तक तो वह ध्रौव्यरूप है और जहाँ तक उसका पर्यायरूपतासे सम्बन्ध है वहाँ तक वह उत्पाद और व्ययरूप है। इनमेंसे ध्रौव्य वस्तुकी नित्यताका चिह्न है और उत्पाद तथा व्यय उसकी अनित्यताके चिह्न है ।
जिस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रने वस्तुतत्त्वको अनेकान्तात्मक सिद्ध करते हए उस अनेकान्तके तत्अतत्, एक-अनेक, सत्-असत् और नित्य-अनित्य ये चार विकल्प-युगल बतलाते हैं उसी प्रकार उन्होंने समयसारकी गाथा १४२ की टीकामें आत्म-तत्त्वका अवलम्बन लेकर बद्ध-अबद्ध, मोही-अमोही, रागी-अरागी, द्वेषी-अद्वेषी आदि विविध प्रकारके और भी विकल्प-युगलोंका प्रतिपादन किया है। इस तरह हम देखते है कि विश्वकी प्रत्येक वस्तु अनेक प्रकारसे परस्परविरोधी दो धर्मोंका आश्रय सिद्ध होती हुई अनेकान्तत्मक सिद्ध होती है। इसका केवलज्ञानद्वारा सर्वात्मना ग्रहण युगपत् अखण्डभावसे ही हुआ करता है । अतः इस अपेक्षासे केवलज्ञानमें निःशेषदेशकालार्थविषयिताका सद्भाव सिद्ध होता है। व श्रुतज्ञानद्वारा परस्पर-विरोधी उक्त दोनों अंशोंमेंसे एक-एक अंशका क्रमसे ग्रहण होता हुआ सर्वात्मना ग्रहण सखण्ड भावसे हुआ करता है। अतः श्रुतज्ञानमें भी निःशेषदेशकालार्थविषयिताका सद्भाव सिद्ध होता है। लेकिन मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके द्वारा इस अनेकान्तत्मक वस्तुका न तो युगपत् अखण्ड भावसे सर्वात्मना ग्रहण होता है और न क्रमशः सखण्डभावसे सर्वात्मना ग्रहण होता है । प्रत्युत अंशमुखन सामान्यतया वस्तुका ही ग्रहण होता है। अतः इन तीनों ज्ञानोंमें उक्त प्रकारको निःशेषदेशकालार्थ विषयिताका अभाव सिद्ध हो जाता है।
वस्तकी परस्पर-विरोधी धर्मद्वयात्मकतारूप अनेकान्तात्मकता उस (वस्तु) की पूर्णता है। उस वस्तुका इस तरहकी पूर्णताके साथ ग्रहण होना प्रमाणरूप है तथा अंशरूपसे ग्रहग होना नयरूप है। मतिज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्ययमानमें वस्तुका ग्रहण यद्यपि अंशरूपसे ही होता है परन्तु वह ग्रहण अंशरूपमें विभाजित
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