SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ वाक्य और महावाक्य ऐसे वचन है कि जिनसे यथावसर बक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका अथवा उसके अंशका प्रतिपादन संभव है। यही कारण है कि वक्ता या लेखक जहाँ जिस वाक्य अथवा महावाक्यसे अपने मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन करना चाहता है वहाँ वह उस वाक्य अथवा महावाक्यका स्वतंत्र रूपमें ही प्रयोग करता है और वक्ता या लेखक जहाँ जिस वाक्य अथवा महावाक्यसे उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशका प्रतिपादन करना चाहता है वहाँ वह वाक्य या महावाक्यका प्रयोग स्वतंत्र रूपमें न करके किसी अनुकूल महावाक्यके अवयवके रूपमें किया करता है अथवा यों कहिये कि किसी वाक्य अथवा महावाक्यका कहींपर किसी वक्ता या लेखक द्वारा यदि स्वतंत्र प्रयोग किया जाय तो उस वाक्य या महावाक्यसे उस वक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका ही प्रतिपादन होगा और यदि इसी वाक्य अथवा महावाक्यका वक्ता या लेखक द्वारा किसी अनु कूल महावाक्यके अवयवके रूपमें प्रयोग किया जाय तो उस वाक्य या महावाक्यसे उस वक्ता या लेखकके उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशका ही प्रतिपादन होगा। वाक्यका स्वतन्त्र रूपमें प्रयोग करनेके विषयमें उदाहरण यह है कि मान लीजिये-एक व्यक्ति स्वामी है और दूसरा व्यक्ति उसका सेवक है। स्वामी पानी बुलानेरूप पदार्थका मनमें संकल्प करके सेवकको बोलता है-'पानी लाओ ?', सेवक भी इस एक ही वाक्यसे स्वामीके उस मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थको समझकर पानी लानेके लिये चल देता है। इस तरह यहाँपर 'पानी लाओ' यह वाक्य स्वामी के उल्लिखित पदार्थका ही प्रतिपादन कर रहा है तथा 'पानी' और 'लाओ' ये दोनों पद चूंकि 'पानी लाओ' इस वाक्यके अवयव बने हुए हैं अतः ये दोनों पद स्वामीके उल्लिखित प्रकारके पदार्थके एक-एक अंशका प्रतिपादन कर रहे हैं। यदि उक्त दोनों पदोंको उक्त वाक्यसे पृथक् करके स्वतंत्र-स्वतंत्र रूपमें प्रयुक्त कर दिया जाय तो उस हालतमें फिर वे दोनों ही पद न तो स्वामीके उल्लिखित प्रकारके पदार्थका प्रतिपादन करेंगे और न उस पदार्थ के किसी अंशका ही प्रतिपादन कर सकेंगे। स्वतन्त्र रूपसे प्रयुक्त महावाक्य अथवा उसके अवयवोंके रूपमें प्रयुक्त वाक्योंका उदाहरण यह है कि जब स्वामीका मनोगत अभिप्राय रूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थ लोटा ले जाकर पानी लाने रूप हो तो वह अपने इस अभिप्रायरूप पदार्थको सेवकपर प्रकट करनेके लिये 'लोटा ले जाओ और पानी लाओ' इस तरह दो वाक्योंके समूहरूप महावाक्यका प्रयोग करता है। यहाँ पर यह समझा जा सकता है कि 'लोटा ले जाओ' और 'पानी लाओ' ये दोनों वाक्य मिलकर एक महावाक्यका रूप धारण करके ही स्वामीके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिने पादन कर रहे हैं तथा 'लोटा ले जाओ' और 'पानी लाओ ये दोनों वाक्य जबतक 'लोटा ले जाओ और पान लाओ' इस महावाक्यके अवयव बने हुए है तब तक दोनों ही वाक्य वक्ता या लेखकके उल्लिखित पदार्थके एक एक अंशका प्रतिपादन कर रहे हैं। यदि इन दोनों वाक्योंको इनके समूहरूप उक्त महावाक्यसे पथक करके स्वतंत्र-स्वतंत्र रूपमें प्रयुक्त कर दिया जाय तो उस हालतमें ये दोनों ही वाक्य स्वतंत्र रूपसे स्वामीके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पृथक-पृथक् दो पदार्थोंका प्रतिपादन करने लगेंगे। उस हालतमें ये दोनों वाक्य न तो स्वामीके उल्लिखित महावाक्यके प्रयोगमें प्रतिज्ञात पदार्थके अंशोंका प्रतिपादन करेंगे और न पदकी तरह पदार्थक प्रतिपादनमें असमर्थ ही रहेंगे । अनेक महावाक्योंके समूहरूप महावाक्य अथवा ऐसे महावाक्य के अवयवोंके रूपमें प्रयुक्त महावाक्योंका उदाहरण यह है कि आचार्य उमास्वामिने अपने मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थ मोक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy