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ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका आधार एक ज्ञान प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष क्यों है ? इसके समाधानमें जैनागममें जो कुछ कहा गया है उसका सार यह है-"सब जीवोंमें पदार्थोंके जाननेकी शक्ति विद्यमान है उसके द्वारा प्रत्येक जीव पदार्थबोध किया करता है । पदार्थबोध मतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका होता है । मतिज्ञान में स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियोंमेंसे किसी भी इन्द्रिय अथवा मनकी सहायता अपेक्षित रहा करती है। श्रुतज्ञान सिर्फ मनकी सहायतासे हुआ करता है और अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ये तीनों ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही हुआ करते हैं । यथायोग्य इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको परोक्ष कहते हैं तथा इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही उत्पन्न होनेके कारण अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान कहते हैं।"
जैनागममें इससे भी आगे इतना कथन और पाया जाता है-"स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों प्रकारके मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान सर्वथा परोक्ष हैं। अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष है। शेष अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों प्रकारके मतिज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण जहाँ परोक्ष हैं वहाँ लोकसंव्यवहारमें प्रत्यक्ष माने जानेके कारण उक्त चारों ज्ञान (अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा). प्रत्यक्ष भी हैं।"
यहाँपर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चारों मतिज्ञानोंको लौकिक व्यवहारमें जो प्रत्यक्ष स्वीकार किया गया है उसका कारण क्या है ? इस प्रश्नके समाधानमें मेरा मत यह है कि जैनागममें इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे होनेवाले ज्ञानोंको परोक्ष और इन्द्रियादिककी सहायताके बिना हो होनेवाले ज्ञानोंको प्रत्यक्ष कहनेका आशय उन-उन ज्ञानोंकी पराधीनता और स्वाधीनता बतलाना
इसे स्वरूपकथन नहीं समझना चाहिये । इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्षके उक्त लक्षण करणानुयोगकी विशद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे कहे गये हैं। लेकिन स्वरूपका कथन करनेवाला जो द्रव्यानुयोग है उसकी दृष्टिसे प्रत्यक्ष वह ज्ञान कहलाता है, जिसमें पदार्थका साक्षात्काररूप बोध हो और परोक्ष वह ज्ञान कहलाता है, जिसमें पदार्थका बोध तो हो, लेकिन वह बोध साक्षात्कार रूप न हो। पदार्थका साक्षात्काररूप बोध वहाँ होता है जहाँ पदार्थ-दर्शनके सद्भावमें पदार्थज्ञान हुआ करता है और पदार्थका असाक्षात्काररूप बोध वहाँ होता है जहाँ पदार्थदर्शनके बिना ही पदार्थका ज्ञान हो जाया करता है। इस प्रकार पदार्थदर्शनके सद्भावमें जो पदार्थबोध हुआ करता है उसे प्रत्यक्ष और पदार्थदर्शनके बिना ही जो पदार्थबोध हो जाया करता है उसे परोक्ष समझना चाहिए। प्रत्यक्ष और परोक्षके इन लक्षणोंके अनुसार पदार्थदर्शनके सदभावमें होनेके कारण अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान तथा अवधिज्ञान, मनःपर्यययज्ञान और केवलज्ञान ये सब प्रत्यक्ष हैं और शेष स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ये सब चूँकि पदार्थदर्शनके बिना ही हो जाया करते हैं, इसलिये परोक्ष हैं । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीवमें पदार्थोके जाननेकी योग्यताकी तरह पदार्थोंके देखनेकी भी योग्यता विद्यमान हैं, इसलिए जिस प्रकार प्रत्येक जीव जाननेको योग्यताका सद्भाव रहनेके कारण पदार्थोंको जानता है उसी प्रकार वह देखनेकी योग्यताका सदभाव रहने के कारण पदार्थोंको देखता भी है और चूंकि पदार्थका दर्शन पदार्थके प्रत्यक्षमे कारण होता है । अतः जो जीव पदार्थका प्रत्यक्षज्ञान करना चाहता है उसे पदार्थका दर्शन अवश्य होना चाहिए, क्योंकि बिना पदार्थदर्शनके किसी भी पदार्थका प्रत्यक्ष होना संभव नहीं है।
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