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४ | दर्शन और न्याय : ११
भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि सभी प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान यद्यपि आत्मोत्थ है क्योंकि ज्ञानको आत्माका स्वभाव या गुण माना गया है। परन्तु अतीन्द्रियप्रत्यक्ष इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही स्वतन्त्ररूपसे आत्मामें उद्भूत हुआ करते हैं, इसलिये इन्हें परमार्थ संज्ञा दी गई है और इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष आत्मोत्थ होते हुए भी उत्पत्तिमें इन्द्रियाधीन हैं, इसलिये वास्तवमें इन्हें प्रत्यक्ष कहना अनुचित ही है। अतः लोकव्यवहारकी दृष्टिसे ही इनको प्रत्यक्ष कहा जाता है। वास्तवमें तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षोंको भी परोक्ष ही कहना उचित है। फिर जब ये प्रत्यक्ष पराधीन हैं तो इन्हें परोक्ष प्रमाणोंमें ही अन्तर्भूत क्यों नहीं किया गया है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान हो उस ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें अन्तत किया गया है और जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान न हो, परम्परया सम्बन्ध कायम होता हो उस ज्ञानको परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत किया गया है। उक्त छहों इन्द्रियजन्यप्रत्यक्षों (सांव्यवहारिकप्रत्यक्षों)में प्रत्येककी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार-चार अवस्थायें स्वीकार की गयी है। अवग्रह-ज्ञानकी उस दुर्बल अवस्थाका नाम है जो अनन्तरकालमें निमित्त मिलनेपर विरुद्ध नानाकोटि विषयक संशयका रूप धारण कर लेती है और जिसमें एक अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि भी शामिल रहती है। संशयके बाद अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटिविषयक अनिर्णीत भावनारूप ज्ञानका नाम ईहा माना गया है। और ईहाके बाद अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि विषयक निर्णीत ज्ञानका नाम अवाय है । यही ज्ञान यदि कालान्तरमें होनेवाली स्मृतिका कारण बन जाता है तो इसे धारणा नाम दे दिया जाता है । जैसे कहीं जाते हुए हमारा दूर स्थित पुरुषको सामने पाकर उसके बारेमें “यह पुरुष है" इस प्रकारका ज्ञान अवग्रह है। इस ज्ञानकी दुर्बलता इसीसे जानी जा सकती है कि यहो ज्ञान अनन्तरकालमें निमित्त मिल जानेपर "वह पुरुष है या ढूंठ" इस प्रकारके संशयका रूप धारण कर लिया करता है। यह संशय अपने अनन्तरकालमें निमित्तविशेषके आधारपर 'मालूम पड़ता है कि यह पुरुष ही है' अथवा 'उसे पुरुष ही होना चाहिये' इत्यादि प्रकारसे ईहाज्ञानका रूप धारण कर लिया करता है और यह ईहाज्ञान ही अपने अनन्तर समयमें निमित्तविशेषके बलपर 'वह पुरुष ही है' इस प्रकारके अवायज्ञानरूप परिणत हो जाया करता है । यही ज्ञान नष्ट होनेसे पहले कालान्तरमें होनेवाली 'अमुक समयमें अमुक स्थानपर मैंने पुरुषको देखा था' इस प्रकारकी स्मृतिमें कारणभूत जो अपना संस्कार मस्तिष्कपर छोड़ जाता है उसीका नाम धारणाज्ञान जैनदर्शनमें माना गया है। इस प्रकार एक ही इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष (सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष) भिन्न-भिन्न समयमें भिन्न-भिन्न निमित्तों के आधारपर अवग्रह, ईहा; अवाय और धारणा इन चार रूपोंको धारण कर लिया करता है और ये चार रूप प्रत्येक इन्द्रिय और मनसे होनेवाले प्रत्यक्ष ज्ञानमें सम्भव हआ करते हैं। जैनदर्शनमें प्रत्यक्षप्रमाणका स्पष्टीकरण इसी ढङ्गसे किया गया है। - जैनदर्शनमें परोक्षप्रमाणके पाँच भेद स्वीकार किये गये हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । इनमेंसे धारणामूलक स्वतन्त्र ज्ञानविशेषका नाम स्मति है । स्मृति और प्रत्यक्षमलक वर्तमान और भत पदार्थोके एकत्व अथवा सादृश्यको ग्रहण करनेवाला प्रत्यभिज्ञान कहलाता है, प्रत्यभिज्ञानमूलक दो पदार्थोंके अविनाभावसम्बन्धरूप व्याप्तिका ग्राहक तर्क होता है और तर्कमूलक साधनसे साध्यका ज्ञान अनुमान माना गया है। इसी तरह आगमज्ञान भी अनुमानमूलक ही होता है अर्थात् 'अमुक शब्दका अमुक अर्थ होता है' ऐसा निर्णय हो जानेके बाद ही श्रोता किसी शब्दको सुनकर उसके अर्थका ज्ञान कर सकता है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकला कि सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य है और परोक्षप्रमाण सांव्यवहारिकप्रत्यक्षजन्य है। बस, सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष और परोक्षप्रमाणमें इतना ही अन्तर है।
जैनदर्शनमें शब्दजन्य अर्थज्ञानको आगमप्रमाण माननेके साथ-साथ उस शब्दको भी आगमप्रमाणमें
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