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________________ ३/ धर्म और सिद्धान्त : १७७ भी मानता है तथा उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष यह भी मानता है कि पुण्यभाव रूप होनेके कारण उसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्धतत्त्वमें होता है, संवर और निर्जरामें अन्तर्भाव नहीं होता। इसके सम्बन्धमें दोनों पक्षोंमें इतना मतभेद अवश्य है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुण्यभाव रूप जीवदयाको व्यवहारधर्म रूप जीव दयाकी उत्पत्तिमें कारण मानता है वहाँ उत्तरपक्ष इस बातको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। पुण्यभाव रूप जीवदया व्यवहारधर्म रूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण होती है, इस बातको आगे स्पष्ट किया जायेगा। (२) जीवदयाका दुसरा प्रकार जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप है। इसकी पुष्टि पूर्वपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें धवल पुस्तक १३ के पष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट निम्न वचनके आधारपर की है "करुणाए जोवसहावस्स कम्मणिदत्तविरोहादो" अर्थ-करुणा जीवका स्वभाव है अतः इसके कर्मजनित होनेका विरोध है। यद्यपि धवलाके इस वचनमें जीवदयाको जीवका स्वतःसिद्ध स्वभाव बतलाया है, परन्तु जीवके स्वतःसिद्ध स्वभावभूत वह जीवदया अनादिकालसे मोहनीय कर्मकी क्रोध प्रकृतियोंके उदयसे विकृत रहती आई है, अतः मोहनीय कर्मकी उन क्रोध प्रकृतियोंके यथास्थान यथायोग्य रूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जब वह शद्ध रूप में विकासको प्राप्त होती है तब उसे निश्चयधर्मरूपता प्राप्त हो जात अन्तर्भाव आस्रव और बन्धतत्त्वमें नहीं होता, क्योंकि जीवके शुद्धस्वभावभूत होनेके कारण वह कर्मोके आस्रव और बन्धका कारण नहीं होती है। तथा इसका अन्तर्भाव संवर और निर्जरा तत्त्वमें भी नहीं होता, क्योंकि इसकी उत्पत्ति हो संवर और निर्जरापूर्वक होती है । (३) जीवदयाका तीसरा प्रकार अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्तिके रूप में व्यवहारधर्मरूप है। इसका समर्थन पूर्वपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें आगम प्रमाणोंके आधारपर किया है। इसका अन्तर्भाव अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनेके आधारपर संवर और निर्जराका कारण होनेसे संवर और निर्जरा तत्त्वमें होता है व दयारूप पुण्यप्रवृत्तिरूप होनेके आधारपर आस्रव और बन्धका कारण होनेसे आस्रव और बन्धतत्त्वमें भी होता है। कर्मोके संवर और निर्जरणमें कारण होनेसे यह व्यवहारधर्मरूप जीवदया जीवके शद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण सिद्ध होती है। पुण्यभूत दयाका विशेष स्पष्टीकरण भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जाव सतत विपरोताभिनिवेश और मिथ्याज्ञानपूर्वक आसक्तिवश अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति करते रहते हैं। तथा कदाचित् संसारिक स्वार्थवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं। ये जीव यदि कदाचित् अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ सम्यक् अभिनिवेश और सम्यग्ज्ञानपूर्वक कर्त्तव्यवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो उनके अन्तःकरणमें उस अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे घृणा उत्पन्न हो जाती है और तब वे उस अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं । इस तरह वह पुण्यभावरूप जीवदया अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहार धर्मकी उत्पत्तिमें कारण सिद्ध होती है। २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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