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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १७३ जान पड़ता है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षपर उक्त प्रकारका मिथ्या आरोप लगाने की दृष्टिसे ही उक्त आगमवाक्यका यह अभिप्राय लेना चाहता है कि दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती है । इस तरह कना चाहिए कि उत्तरपक्षकी यह वृत्ति उस व्यक्तिके समान है जो दूसरेको अपशकुन करनेके लिये अपनी आँख फोड़नेका प्रयत्न करता है । अन्तमें मैं कहना चाहता हूँ कि तत्त्वफलित करनेकी दृष्टिसेकी जानेवाली इस तत्त्वचर्चा में ऐसे सारहीन और अनुचित प्रयत्न करना उत्तरपक्षके लिये शोभास्पद नहीं है । किन्तु उसने ऐसे प्रयत्न तत्त्वचर्चा में स्थानस्थानपर किये हैं । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उत्तरपक्षने अपने इसप्रकार के प्रयत्नों द्वारा पूर्वपक्षको उलझा देना ही अपने लिये श्रेयस्कर समझ लिया था । उत्तरपक्षके इस तरहके प्रयत्नों का एक परिणाम यह हुआ है कि खानिया तत्त्वचर्चा तत्त्वचर्चा न रहकर केवल वितण्डावाद बन गई है और वह इतनी विशालकाय हो गई है कि उसमेंसे तत्त्व फलित कर लेना विद्वानोंके लिए भी सरल नहीं है । यद्यपि पूर्वपक्षने अपने वक्तव्योंमें शक्ति भर यह प्रयत्न किया है कि खानिया तत्त्वचर्चा तत्त्व फलित करने तक ही सीमित रहे । परन्तु इस विषयमें उत्तरपक्षका सहयोग नहीं मिल सका, यह खेदकी बात है । वास्तविक बात यह है कि इस तत्त्वचर्चामें उत्तरपक्षने अपनी एक ही दृष्टि बना ली थी कि जिस किसी प्रकारसे अपने पक्षको विजयी बनाया जावे। इसलिए उसके आदिसे अन्त तकके सभी प्रयत्न केवल अपने उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही हुए हैं । यहाँपर मैं एक बात यह भी कह देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने पक्ष के समर्थन में जिस आगमकी पग-पगपर दुहाई दी है उसका उसने बहुतसे स्थानोंपर साभिप्राय अनर्थ भी किया है। जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है कि पद्मनन्दि पंचविशतिका २३ ७ का उसने पूर्वपक्षका मिथ्या विरोध करनेके लिए जान - बूझकर विपरीत अर्थ करनेका प्रयत्न किया है और इसी तरह के प्रयत्न उसने आगे भी किये हैं जिन्हें यथास्थान प्रकाशमें लाया जायगा । प्रश्नोत्तर २ की सामान्य समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न -- जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? त० च० पृ० ७६ । उत्तरपक्षका उत्तर—जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यकी पर्याय होनेके कारण उसका अजीव तत्त्व में अन्तर्भाव होता है, इसलिए वह स्वयं जीवका न तो धर्मभाव है और न अधर्मभाव ही है । त० च० पृ० ७६ । प्रश्न प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्षका अभिप्राय - पूर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म मानता । यतः उत्तरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म स्वीकार करनेके लिये तैयार नहीं हैं, अतः उसने उत्तरपक्षके समक्ष प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया था । जीवित शरोरकी क्रियासे पूर्वपक्षका आशय - जीवित शरीरकी क्रिया दो प्रकारकी होती हैएक तो जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया और दूसरी शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया । इन दोनोंमें प्रकृतमें पूर्वपक्षको शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया ही विवक्षित है, जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया विवक्षित नहीं है । इसका कारण यह है कि धर्म और अधर्म ये दोनों जीवकी ही परिणतियाँ हैं और उनके सुख-दुःख रूप फलका भोक्ता भी जीव ही होता है । अतः जिस जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म होते हैं उसका कर्त्ता जीवको मानना ही युक्तिसंगत है, शरीरको नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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