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________________ १६८ : सरस्वती-परखपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें स्वीकृत निमित्त-न मित्तिक सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है। स्वयं उत्तरपक्षने भी अपने तृतीय दौरके अनुच्छेद १ में यह स्वीकार किया है। परन्तु पूर्वपक्षने अपने प्रश्नमें यह नहीं पूछा है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें स्वीकृत निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है या निश्चयनयका । अथवा यह नहीं पूछा है कि उक्त निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारसे है या निश्चयसे । पूर्वपक्षका प्रश्न तो यह है कि द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं (त० च० पृ०१)। इसका आशय यह होता है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त होता है या नहीं। अथवा यह आशय होता है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध विद्यमान है या नहीं। प्रश्नका स्पष्ट आशय यह होता है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त रूपसे कार्यकारी होता है या वह वहांपर उस रूपमें सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है और संसारी आत्मा द्रव्यकर्मोदयके निमित्त हुए बिना अपने आप ही विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणरूप परिणमन करता रहता है। यतः उत्तरपक्ष द्वारा दिये गये उक्त उत्तरसे उक्त प्रश्नका उपर्युक्त प्रकार समाधान नहीं होता, अतः निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं है। उत्तर प्रश्नके बाहर भी है उत्तरपक्षने अपने उत्तरमें यह अतिरिक्त बात भी जोड़ दी है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें कर्तृ-कर्म सम्बन्ध नहीं है, जिसका प्रश्नके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है क्योंकि पर्वपक्षने अपने प्रश्नमें उनके मध्य कर्त-कर्म सम्बन्ध होने या न होनेकी चर्चा ही नहीं की इस तरह इससे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं है। उत्तर अप्रांसगिक है यतः उपर्युक्त विवेचनके अनुसार उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं है अतः स्पष्ट हो जाता है कि उक्त उत्तर अप्रसांगिक है। उत्तर अनावश्यक है एक बात यह भी है कि दोनों ही पक्ष उक्त-नैमित्तिक सम्बन्धको व्यवहारनयका विषय मानते हैं। उसमें दोनों पक्षोंके मध्य कोई विवाद ही नहीं है। इस बातको उत्तर पक्ष भी जानता है। अतः उसे अपने उत्तरमें उसका निर्देश करना अनावश्यक है। यद्यपि इस विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य यह विवाद है कि जहाँ उत्तरपक्ष व्यवहारनयके विषयको सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थ मानता है, परन्तु वह प्रकृत प्रश्नके विषयसे भिन्न होनेके कारण उसपर स्वतन्त्र रूपसे ही विचार करना संगत होगा । अतएव इस पर यथावश्यक आगे विचार किया जायगा। दुसरी बात यह है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें दोनों पक्ष कर्त-कर्म सम्बन्धको नहीं मानते हैं और मानते भी हैं तो उपचारसे मानते हैं। इस बातको भी १. और दूसरी ओर द्रव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें व्यवहारनयसे बतलाये गये निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूल प्रश्नका उत्तर नहीं मानता, इसका हमें आश्चर्य है।-त० च० पृ० ३२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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