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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त: १६१ अवास्तविक सिद्ध होती है । इसलिए केवलज्ञानमें जब प्रतिक्षण पदार्थोंकी वास्तविक पृथक्-पृथक्रूपताका प्रतिभासन हो रहा है तो उसमें उनकी अवास्तविक यथायोग्य परस्पर संयुक्त दशाका या बद्ध दशाका प्रतिभासन होना संभव नहीं रह जाता है । मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानमेंसे मतिज्ञान हो ऐसा ज्ञान है जिसमें सोपकी वास्तविक सोपरूपताका और आस्तविक रजतरूपताका प्रतिभासन सम्भव है । परन्तु उस मतिज्ञान में भी जब सीपका वास्तविक सीपरूपताका प्रतिभासन हो रहा हो तब उसकी अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन नहीं होता है और उसमें जब सीपको अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन हो रहा हो तब उसकी वास्तविक सोपरूपताका प्रतिभासन नहीं होता है । यदि कहा जाये कि सीपकी रजतरूपता जैसी अवास्तविक है वैसी अवास्तविक पदार्थों की संयुक्त दशा या बद्ध दशा नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञानमें सोपकी अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन मिथ्या माना जाता है उस प्रकार मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें होनेवाले पदार्थोंकी संयुक्त दशा या बद्ध दशाके प्रतिभासनको मिथ्या नहीं माना जाता है, इसलिए केवलज्ञानके विषयमें मतिज्ञानका उपर्युक्त उदाहरण अयुक्त है, तो इसका समाधान यह है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में प्रतिभासित होनेवाली पदार्थोंकी संयुक्तदशा या बद्धदशा नानापदार्थ निष्ठ होनेसे उपचारित धर्मके रूपमें उपचारसे ही वास्तविक है । एकपदार्थनिष्ठ स्वरूपदृष्टिसे तो वह मिथ्या हो है । अतएव प्रत्येक पदार्थके पृकक्-पृथक् स्वरूपका प्रतिभासन करनेवाले केवलज्ञानमें उसके प्रतिभासनका निषेध किया गया है, क्योंकि केवलज्ञानमें सतत प्रत्येक पदार्थ के पृथक्-पृथक् तदात्मक स्वरूपका हो प्रतिभासन होता है । इस विवेचनसे यह भी सिद्ध होता है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन केवलज्ञानमें होनेवाले पदार्थ के प्रतिभासनसे विलक्षण ही होता । इस विलक्षणताका स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है १ यतः जीव में केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर ही प्रकट होता है, अतः केवलज्ञानमें समस्त पदार्थोंकी एक-एक क्षणवर्ती स्थितिके प्रतिभासनकी क्षमता होनेसे उसमें सभी पदार्थों की एक-एक क्षणवर्ती स्थितिका पृथक्-पृथक् प्रतिभासन होता है । यतः जीवमें मतिज्ञान मतिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है, अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है और मन:पर्ययज्ञान मन:पर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है, अतः तीनों ज्ञानोंमें अपने-अपने विषयभूत पदार्थको अन्तर्मुहर्त कालवर्ती नाना स्थितियोंका अखण्ड रूपसे प्रतिभासन होनेकी क्षमता होनेसे पदार्थको अन्तर्मुहर्त कालवर्ती नाना स्थितियोंका ही अखण्डरूपसे प्रतिभासन होता है। तात्पर्य यह है कि जहाँ उक्त प्रकार क्षायिक होनेसे केबलज्ञानमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन क्षण-क्षण में परिवर्तनशील है वहाँ उक्त प्रकार क्षायोपशमिक होनेसे मतिज्ञान, अवधिज्ञान ओर मनः पर्यज्ञान इन तीनोंमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन अन्तर्मुहर्त कालमें ही परिवर्तनशील है। एक-एक क्षण में परिवर्तनशील नहीं है । २ - यतः जीव में केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्म के सर्वथा क्षय होनेपर प्रकट होता है, अतः उसमें समस्त पदार्थोंका प्रतिभासन मात्र स्व-सापेक्ष होनेसे असीम होता है । यह बात तत्त्वार्थसूत्रके “सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य” (१-२९) सूत्रसे जानी जाती है। इसके विपरीत जीव में मतिज्ञान मतिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है अतः उसमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन पौद्गलिक स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र, कर्ण और मनके अवलम्बनपूर्वक होनेसे मर्यादित होता है । यह बात तत्त्वार्थसूत्रके “मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्ये सर्व पर्यायेषु' (१-२६) सूत्रसे जानी जाती है । तथा जीवमें अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर व मन:पर्ययज्ञान मन:पर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होते हैं । अतः इनमें होनेवाला २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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