________________
१४६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य
वह ज्ञानका विषय होता है । अतः उस प्रकरणमें अनिन्द्रिय शब्दको "अ" का अर्थ निषेध करके ज्ञानवाची मान लेना चाहिये।
अमनस्क शब्दका 'ईषत् मन वाला" अर्थ भी कुछ असंगत-सा प्रतीत होता है। अर्थात् इन्द्रियशब्दके साथ अनिन्द्रिय शब्दका "ईषत् इन्द्रिय" अर्थ जितना उचित प्रतीत होता है उतना समनस्क शब्दके साथ अमनस्क शब्दका "ईषत् मन वाला" अर्थ उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि समनस्क शब्दमें 'सह' शब्दका प्रयोग मनकी मौजूदगीके अर्थ में ही किया गया है । अतः स्वभावतः अमनस्कशब्दमें "अ" का अर्थ मनकी गैरमौजूदगी ही करना चाहिये।
दुसरी बात यह है कि अनिद्रियशब्दके विशेषणार्थक संज्ञा होने की वजहसे उसका वाच्यार्थ मन होता है, इसलिये जिस प्रकार इन्द्रियशब्दके साथ अनिन्द्रियशब्दके प्रयोगमें सामंजस्य पाया जाता है, उस प्रकार अमनस्कशब्दका "ईषित् मनवाला" अर्थ करके समनस्क शब्दके साथ उसका (अमनस्कशब्दका) प्रयोग करने में सामंजस्य नहीं है क्योंकि अमनस्कशब्दका जब हम "ईषित मनवाला" अर्थ करेंगे तो स्वभावतः
= समनस्कशब्दका हमें “पूर्ण मनवाला" अर्थ करना होगा, लेकिन समनस्क शब्दका “पूर्ण मनवाला" अर्थ करना क्लिष्ट कल्पना ही कही जा सकती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org