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________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त : १४३ ज्ञान में तो पदार्थका दर्शन कारण होता है और किसी-किसी ज्ञानमें पदार्थका दर्शन कारण न होकर पदार्थज्ञानका दर्शन कारण होता है, जिन ज्ञानोंमें पदार्थका दर्शन कारण होता है उन ज्ञानोंमें पदार्थ स्पष्टताके साथ झलकता है । अतः वे ज्ञान विशद कहलाते हैं और इस प्रकारको विशदताके कारण ही वे ज्ञान प्रत्यक्षज्ञानकी कोटिमें पहँच जाते हैं। जैसे-अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों स्वापेक्षज्ञान तथा सर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियोंसे होने वाला पदार्थज्ञान तथा मानस प्रत्यक्ष ज्ञान । एवं किन ज्ञानोंमें पदार्थका दर्शन कारण नहीं होता है अर्थात् जो ज्ञान पदार्थदर्शनके अभावमें ही पदार्थज्ञानपूर्वक या यों कहिये कि पदार्थज्ञानदर्शनके सदभावमें उत्पन्न हआ करते हैं उन ज्ञानोंमें पदार्थ स्पष्टताके साथ नहीं झलक पाता है अतः वे ज्ञान अविशद कहलाते हैं और इस प्रकारकी अविशदताके कारण ही वे ज्ञान परोक्षज्ञानकी कोटिमें चले जाते हैं जैसे-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान,तर्क व अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान । यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि दर्शन और ज्ञानमें जो कार्य-कारण भाव पाया जाता है, वह सहभावी है। इसलिए जब तक जिस प्रकारका दर्शनोपयोग विद्यमान रहता है तब तक उसी प्रकारका ज्ञानोपयोग होता रहता है और जिस क्षणमें दर्शनोपयोग परिवर्तित हो जाता है उसी क्षण में ज्ञानोपयोग भी बदल जाता है-'दंसणपुन्वं गाणं' इस आगमवाक्यका यह अर्थ नहीं है कि दर्शनोपयोगके अनन्तरकालमें ज्ञानोपयोग होता है क्योंकि यहाँ पर पूर्वशब्द ज्ञानमें दर्शनको सिर्फ कारणताका बोध करानेके लिये ही प्रयुक्त किया गया है जिसका भाव यह है कि दर्शनके बिना किसी ज्ञानकी उत्पत्ति सम्भव नही है। इस कथनसे छदमस्थजोवोंमें दर्शयोपयोग और ज्ञानोपयोगके क्रमवर्तीपनेकी मान्यताका खण्डन तथा केवलीके समान ही उनके (छद्मस्थोंके) उक्त दोनों उपयोगोंके योगपद्य का समर्थन होता है । इस विषयके मेरे विस्तृत विचार पाठकोंको भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित होने वाले 'ज्ञानोदय' पत्रके अप्रैल सन १९५१ के अंकमें प्रकाशित 'जैन दर्शनमें दर्शनोपयोगका स्थान' शीर्षक लेखमें तथा जन ५१ के अंकमें प्रकाशित 'ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका आधार' शीर्षक लेखमें देखनेको मिल सकते हैं। ये दोनों लेख इसी ग्रन्थमें यथास्थान प्रकाशित हैं। अस्तु ! ऊपर जो स्मृतिमें कारणभूत धारणाज्ञानका संकेत किया गया है वह धारणाज्ञान चूंकि पदार्थ दर्शनके सद्भावमें ही उत्पन्न होता है अतः वह ज्ञान प्रत्यक्षज्ञानकी कोटिमें पहुँच जाता है। तथा इस धारणाज्ञानके अतिरिक्त इसके पूर्ववर्ती अवाय, ईहा और अवग्रहज्ञान भी चूँकि पदार्थदर्शनके सद्भावमें ही उत्पन्न हआ करते हैं अतः ये तीनों ज्ञान भी प्रत्यक्षज्ञानकी कोटिमें पहुँच जाते हैं। यहाँपर इतना विशेष समझना चाहिए कि अवाय, ईहा और अवग्रह ये तीनों ज्ञान यद्यपि धारणाज्ञानके पूर्ववर्ती होते हैं परन्तु इनका धारणाज्ञानके साथ कार्यकारणसम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिस प्रकार पूर्वोक्त प्रकारसे धारणा आदि ज्ञान स्मृति आदि ज्ञानोंमें कारण होते हैं उस प्रकार धारणाज्ञानमें अवाय आदि ज्ञानोंको कारण माननेकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि धारणाज्ञानके पहले अवाय आदि ज्ञान होना ही चाहिये। तात्पर्य यह है कि कभी कभी हमारा ऐन्द्रियिकज्ञान अपनी उत्पत्तिके प्रथमकाल में ही धारणारूप हो जाया करता है, अतः वहाँपर यह भेद करना असम्भव होता है कि ज्ञानकी यह हालत तो अवग्रहज्ञानरूप है और उसकी यह हालत धारणारूप है । कभी-कभी हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान अपनी उत्पत्तिके प्रथमकालमें धारणारूप नहीं हो पाता, धीरे-धीरे कालान्तरमें ही वह धारणाका रूप ग्रहण करता है । इसलिए जब तक हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान धारणारूप नहीं होता, तब तक वह ज्ञान अवग्रहज्ञानकी कोटिमें बना रहता है। यदि कदाचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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