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________________ भुज्यमान आयुमें अपकर्षण और उत्कर्षण कई विद्वानोंका ऐसा मत है कि भुज्यमान किसी भी आयुमें उत्कर्षणकरण नहीं होता, अपकर्षणकरण भी भुज्यमान तिर्यगायु और मनुष्यायुमें ही हो सकता है, कारण इन दोनोंको उदीरणा संभव है । भुज्यमान देवाय और नरकाय अनपवर्त्य होनेके कारण उदीरणारहित है; इसलिये इनमें अपकर्षणकरण भी नहीं होता है । आयुकर्ममें यदि उत्कर्षण, अपकर्षणकरण हों तो वे वध्यमानमें ही होंगे। वध्यमान आयुमें उत्कर्षण, अपकर्षणकरण होते हैं, इसमें किसीका विवाद नहीं, लेकिन अभीतक मेरा ख्याल है कि भुज्यमान सम्पूर्ण आयुओंमें भी उत्कर्षण, अपकर्षणकरण हो सकते हैं, इसका कारण यह है कि भुज्यमान तिर्यगायु और मनुष्यायुको उदीरणा तो सर्वसम्मत है; भुज्यमान देवायु और नरकायुकी भी उदीरणा सिद्धान्तग्रन्थोंमें बतलाई है संकमणाकरणूणा णवकरणा होति सव्य-आऊणं ।। गोम्मट० कर्म० गा० ४४१ । एक संक्रमणकरणको छोड़कर बाकीके बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उदय, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना ये नवकरण संपूर्ण आयुओंमें होते हैं। किसी भी कर्मको उदीरणा उसके उदयकालमें ही होती है; कारण उदीरणाका लक्षण निम्न प्रकार माना गया है : अण्णत्थठियस्सुदये संथहणमुदीरणा हु अत्थि तं ॥ गो० कर्म० गा० ४३९ । सं० टी०-उदयावलिवाह्यस्थितस्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु । उदयावलीके द्रव्यसे अधिक स्थितिवाले द्रव्यको अपकर्षणकरणके द्वारा उदयावलीमें डाल देना अर्थात् उदयावलीप्रमाण उस द्रव्यको स्थिति कर देनेका नाम उदोरणा है। उदयगतकर्मके वर्तमान समयसे लेकर आवली पर्यन्त जितने समय हों उन सबके समहको उदयावली कहा गया है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि कर्मकी उदीरणा उसके उदय हालतमें ही हो सकती है। परभव-आउगस्स च उदीरणा णत्थि णियमेण ।। -गोकर्म० गा० १५९ । यह नियम स्पष्टरूपसे परभवको (बध्यमान) आयुकी उदीरणाका निषेध कर रहा है। उदयाणमावलिह्मि च उभयाणं बाहिरम्मि खिवण→ । लब्धिसार, गा० ६८ । अर्थात-उदयावलीमें उदयगत प्रकृतियोंका ही क्षेपण होता है। उदयावलीके बाहिर उदयगत और अनुदयगत दोनों तरहकी प्रकृतियोंका क्षेपण होता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जिस कर्मका उदय होता है उसीका उदयावली-बाह्यद्रव्य उदयावलीमें दिया जा सकता है। इसलिये देवायु और नरकायुकी उदीरणा क्रमसे देवगति और नरकगतिमें होगी, अन्यत्र नहीं, अर्थात् भुज्यमान देवायु और नरकायुको ही उदीरणा हो सकती है, वध्यमान की नहीं । शंका-परभव-आउगस्स च उदीरणा णत्थि णियमेव ॥ -गो० कर्म० गा० ९१८ । सं० टोका-परभवायुषो नियमेनोदीरणा नास्ति, उदयगतस्यैवोपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुर्योऽन्यत्र तत्संभवात् ॥ अर्थात्-परभवकी (वध्यमान) आयुकी नियमसे उदीरणा नहीं होती, कारण कि देव, नारकी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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