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________________ शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय इन चौवन (५४ ) अन्त में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार (४) प्रकृतियों का गुणस्थान में बन्धयोग्य प्रकृतियाँ बाईस (२२) रह जाती हैं । ३ / धर्म और सिद्धान्त : १२७ प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त होता है और बन्धविच्छेद होता है । इस तरह नवम नवम गुणस्थान में बन्धयोग्य बाईस (२२) प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलता के कारण क्रमसे पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त हो जानेसे दशम गुणस्थानमें योगकी अनुकूलता के कारण बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १७ सिद्ध होती हैं । दशम गुणस्थानमें बन्धयोग्य १७ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलताके कारण ज्ञानावरणकर्मकी ५ दर्शनावरण कर्मको ४, अन्तरायकर्मकी ५ तथा उच्चगोत्र और यशःकीर्ति इन १६ प्रकृतियोंका बन्धाभाव होनेपर ११ वें गुणस्थान उपशान्तमोह, १२वें गुणस्थान क्षीणमोह और १३ वें 'गुणस्थान सयोगकेवली में योगकी अनुकूलताके कारण एक मात्र सातावेदनीय प्रकृतिका बन्ध होता है। तथा १४वें गुणस्थान में योगका सर्वथा अभाव हो जाने के कारण कर्मबन्धका सर्वथा अभाव ही है । इस विवेचनका आशय यह है कि जिस प्रकार चुम्बक पत्थर में विद्यमान आकर्षणशक्तिके आधारपर आकृष्ट होकर लोहेकी सुई चुम्बक पत्थर के साथ सम्बद्ध हो जाती है उसी प्रकार जीवमें विद्यमान योगकी अनुकूलता के आधारपर कर्मप्रकृतियोंका आसव होकर वे कर्मप्रकृतियां जीवके साथ बन्धको प्राप्त होती हैं । parent अनुकूलता और प्रतिकूलताका आधार : कर्म प्रकृतियों के बन्ध में योगकी अनुकूलताको जो कारण माना गया है उसका आधार मोहनीयकर्म के उदयके साथ अन्य कारणसामग्री है। और उनके बन्धाभाव में योगकी प्रतिकूलताको जो कारण माना गया है। उसका आधार मोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम या क्षयके साथ अन्य कारणसामग्री है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड और इस लेखका समन्वय यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इस लेखमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १४६ कही गयी हैं, जबकि गोम्मटसार कर्म - htosमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० बतलाई गयी हैं । इन दोनों कथनोंका समन्वय इसप्रकार करना चाहिए कि गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड में जो १२० प्रकृतियाँ बन्धयोग्य बतलाई हैं उनमें बन्धकी समानताके कारण ८ स्पर्शो को स्पर्श सामान्य में, ५ रसोंको रससामान्यमें २ गंधोंको गन्धसामान्यमें और ५ वर्णोंको वर्णसामान्य में अन्तर्भूत कर लिया गया है । तथा एक साथ बन्ध होनेके कारण औदारिकशरीरमें औदारिकबंधन और औदारिक संघातको वैक्रियिकशरोर में वैक्रियिकबंधन और वैक्रियिकसंघातको आहारकशरीरमें आहारकबन्धन और आहारक संघातको, तैजसशरीरमें तैजसबन्धन और तैजससंघातको तथा कार्मणशरीर में कार्मणबन्धन और कार्मणसंघातको समाहित कर लिया गया है । इसलिये बद्ध्यमान प्रकृतियाँ वास्तव में १४६ होनेपर भी गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उक्त प्रकार अभेद से (अभेद विवक्षासे) १२० कही गयी हैं । फलतः वास्तविकता के आधारपर इस लेख में बन्धयोग्य प्रकृतियोंकी संख्या १४६ बतलाना गोम्मटसार कर्मकाण्डके कथनके विरुद्ध नहीं है । इसीप्रकार प्रकृतियों के बन्धन के समान अबन्ध और बन्धव्युच्छित्तिको व्यवस्था में गोम्मटसार कर्मकाण्डके कथनके साथ इस लेखमें पाये जानेवाले संख्याभेदका भी समन्वय कर लेना चाहिए । यह भी यहाँ ज्ञातव्य है कि यद्यपि जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती कहा गया है और मिथ्यात्वगुणस्थान में बन्धयोग्य १४१ प्रकृतियोंमें १६ प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जिनका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होता है, अन्य गुणस्थानोंमें नहीं, परन्तु यह नियम नहीं है कि उन १६ प्रकृतियोंका बन्ध इस गुणस्थान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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