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________________ ११२ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ कर उक्त आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करते हुए अथवा उक्त संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा व उक्त आरम्भी पापमय अदयाप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश या सर्वदेश त्यागकर कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हुए यदि क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका अपने में विकास कर लेते हैं, तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । ६. यतः मिथ्यात्व गुणस्थानके अतिरिक्त सभी गुणस्थान भव्य जीवके ही होते हैं, अभव्य जीवके नहीं, • अतः जो भव्य जीव सासादन सम्यग्दृष्टि हो रहे हों, उनमें भी उक्त पाँचों अनुच्छेदोंमेंसे दो, तीन और चार संख्यक अनुच्छेदोंमें प्रतिपादित व्यवस्थाएँ यथायोग्य पूर्वसंस्कारवश या सामान्यरूपसे लागू होती हैं, तथा अनुच्छेद तीन और चारमें प्रतिपादित व्यवस्थाएँ मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें भी लागू होती हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनुच्छेद एकमें प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे जीव एक तो केवल संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति कदापि नहीं करते हैं व उनकी प्रवृत्तिपूर्वक होनेके कारण वे पुण्यमय दयारूप प्रवृत्ति भी सांसारिक स्वार्थवश नहीं करते हैं, तथा उनमें अनुच्छेद पाँचमें प्रतिवादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे अपना समय व्यतीत करके नियमसे मिथ्यात्व गुणस्थान को ही प्राप्त करते हैं । इसी तरह मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अनुच्छेद एक और दो में प्रतिपादित व्यवस्थाएँ इसलिए लागू नहीं होतीं कि उनमें संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव रहता है तथा उनमें अनुच्छेद पाँचकी व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे भी मिथ्यात्वगुणस्थानकी ओर झुके हुए होनेके कारण अपना समय व्यतीत करके मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं । इस तरह सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यात्वगुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सतत यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्रवृत्तियाँ भी अबुद्धिपूर्वक हुआ करती हैं । ७. उपर्युक्त जीवोंसे अतिरिक्त जो भव्यमिध्यादृष्टि जीव और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व प्राप्तिकी ओर झुके हुए हों अर्थात् सम्यक्त्व-प्राप्ति में अनिवार्य कारणभूत करणलब्धिको प्राप्त हो गये हों, वे नियमसे यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध करते हुए भी दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृतिरूप तीन तथा चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान -- क्रोध, मान, माया और लोभ-रूप चार -- इस तरह सात कर्म - प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूपमें संवर और निर्जरण किया करते है । इसी तरह चतुर्थं गुणस्थानसे लेकर आगेके गुणस्थानों में विद्यमान जीव यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध, यथायोग्य कर्मोंका संवर और निर्जरण किया करते हैं । उपर्युक्त विवेचनका फलितार्थ १. कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति ही किया करते हैं । अथवा संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ सांसारिक स्वार्थवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं । कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति कर्त्तव्यवश किया करते हैं । कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पी - पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप शुभ प्रवृत्ति के साथ कर्त्तव्यवश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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