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________________ १०८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ दया भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासका कारण होती है तथा भव्यजीवमें तो वह पुण्यरूप दया इन लब्धियोंके विकासके साथ आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासका कारण होती है। उक्त करणलब्धि प्रथमतः मोहनीयकर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासंभव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिरूप तीन व मोहनीयकर्मके भेद चारित्रमोहनीयकर्मकी अनन्तानुबन्धी कषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार--इस तरह सात प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण होती हैं। इस तरह उक्त व्यवहारधर्मरूप दया कर्मोके संवर और निर्जरणमे कारण सिद्ध हो जाती है। इतनी बात अवश्य है कि उस व्यवहारधर्मरूप दयामें जितना पुण्यमय दयारूप प्रवृत्तिका अंश विद्यमान रहता है वह तो कर्मोके आस्रव और बन्धका ही कारण होता है तथा उस व्यवहारधर्मरूप दयाका संकल्पीपापमय अदयारूप प्रवृत्तिसे होनेवाली सर्वथानिवृत्तिका अंश हो कर्मोके संवर और निर्जरणका कारण होता है । द्रव्यसंग्रहग्रन्थकी गाथा ४५ में जो व्यवहार-चारित्रका लक्षण निर्धारित किया गया है, उसके आधारपर व्यवहारधर्मरूप दयाका स्वरूप स्पष्ट रूपसे समझ में आ जाता है। वह गाथा निम्न प्रकार है असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥४५।। अर्थ-अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली शुभ प्रवृत्तिको जिन भगवान्ने व्यवहार-चारित्र कहा है। ऐसा व्यवहार-चारित्र व्रत, समिति और गुप्तिरूप होता है । इस गाथामें व्रत, समिति और गुन्तिको व्यवहारचारित्र कहनेमे हेतु यह है कि इनमें अशुभ से निवृत्ति और शभमें प्रवृत्तिका रूप पाया जाता है । इस तरह इस गाथासे निर्णीत हो जाता है कि जीव पुण्यरूप दयाके साथ करता है तबतक तो उस दयाका अन्तर्भाव पुण्यरूप दयामें होता है और वह जीव उक्त पुण्यरूप जीवदयाको जब पापरूप अदयासे निवृत्तिपूर्वक करने लग जाता है तब वह पुण्यभूत दया व्यवहारधर्मका रूप धारण कर लेती है, क्योंकि इस दयासे जहाँ एक ओर पुण्यमय प्रवृत्तिरूपताके आधारपर कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है वहाँ दूसरी ओर उस दयासे पापरूप अदयासे निवृत्तिरूपताके आधारपर भव्यजीवमें कर्मोंका संवर और निर्जरण भी हुआ करता है। व्यवहारधर्मरूप दयासे कर्मोंका संवर और निर्जरण है. इसकी पष्टि आचार्य वीरसेनके द्वारा जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्या निर्दिष्ट निम्न वचनसे होती है-- सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो । अर्थ--शुभ और शुद्धके रूपमें मिश्रित परिणामोंसे यदि कर्मक्षय नहीं होता हो, कर्मक्षयका होना असंभव हो जायेगा। आचार्य वीरसेनके वचनसे 'सुह-सुद्धपरिणामेहिं' पदका ग्राह्य अर्थ आचार्य वीरसेनके वचनके 'सुह-सुद्धपरिणामेहिं' पदमें सुह और शुद्ध दो शब्द विद्यमान है । इनमेंसे 'सुह शब्दका अर्थ भव्यजीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृतिरूप शुभ परिणमनके रूपमें और 'सुद्ध' शब्दका अर्थ उस भव्यजीवको क्रियावती शक्तिके अशुभसे निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना ही युक्त है । 'सुह' शब्दका अर्थ जीवकी भाववतीशक्तिके पुण्यकर्मके उदयमें होनेवाले शुभ परिणामके रूपमें और 'सुद्ध' शब्दका अर्थ उस जीवकी भाववतीशक्तिके मोहनीयकर्मके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना युक्त नहीं है। आगे इस बातको स्पष्ट किया जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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