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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १०१ मोक्ष नहीं जायेंगे वे अभव्योंके समान ही हुए, इसलिये उनको अभव्य ही कहना उचित है, भव्य नहीं ? उत्तर--भव्य और अभव्यका भेद मोक्ष जानेकी योग्यताके रहने न रहनेसे किया गया है, इसलिये जिन जीवोंमें मोक्ष जानेकी योग्यता है उनमेंसे यदि भव्य इस योग्यताके वर्तमान (व्यक्त) नहीं होनेके कारण मोक्ष न भी जाय तो भी वह भव्य हो कहा जायगा। दूसरी बात यह है कि जिन जोवोंके मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव वर्तमान हो जाते हैं वे मोक्ष चले जाते हैं, यह काल अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चला जायगा, कहीं भी विश्रान्तिको संभावना नहीं, तो यह नियम कैसे बना सकते हैं कि इतने भव्यजीव मोक्ष जायँगे, इतने नहीं। योऽनन्तेनापि कालेन न सेत्स्यत्यसावभव्य एवेति चेन्न भव्यराश्यन्तर्भावात्।।त. वा०२।७।९।। अर्थात्--जो भव्य अनन्तकालमें भी मोक्ष नहीं जायगा, उसको अभव्य नहीं कहना चाहिये, कारण कि उसकी गणना भव्यराशिमें ही होती है । इसका तात्पर्य भी वही है जो ऊपर लिखा गया है। इसलिये जैनजगतके संपादक महोदयका यह लिखना कि "शास्त्रोंमें भव्य दो तरहके बतलाये गये हैं-एक तो वे, जो मोक्ष जायेंगे, दुसरे वे, जो न जायेंगे, यह कल्पना अयक्त और निरर्थक दोनों है"; उचित नहीं कहा जा सकता है, कारण कि पूर्वोक्त प्रकारसे आचार्योंका कथन कल्पना नहीं, किन्तु वस्तुस्वरूपका प्रतिपादक ही सिद्ध होता है । इसलिये सार्थक और उपपत्तिसहित ही है। शंका--शास्त्रोंमें भव्यत्व और अभव्यत्वको पारिणमिक कहा गया है किन्तु यहाँपर मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यताको भव्यत्व और इसके अभावको अभव्यत्व कहा है, इसलिये यह कथन शास्त्र-विरुद्ध है। उत्तर-जीवके पाँच प्रकारके भाव बतलाये हैं--कर्मोंके उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदयसे होने वाले क्रमसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव कहे जाते हैं तथा जिनमें कर्मोंके उपशमादिकी अपेक्षा नहीं है वे भाव पारिणामिक कहे जाते हैं । जीवोंका सम्यग्यदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणाम यथायोग्य कर्मोंके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमसे प्रकट होता है । लेकिन इसमें द्रव्य, क्षेत्र काल, भावरूप योग्यता भी कारण पड़ती है । अर्थात् योग्यतामें कर्मोंका उपशम, क्षय, क्षयोपशम कारण नहीं, बल्कि कर्मोके उपशम. क्षय, क्षयोपशममें योग्यता कारण है । कर्मोका उदय भी इस योग्यतामें कारण नहीं है । इसलिये इस योग्यतारूप भव्यत्व और इसके अभावरूप अभव्यत्वभावोंको पारिणामिक भाव कहा गया है । दूसरी बात यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें समानरूपसे भव्यता और अभव्यता पायी जाती है । पुद्गलद्रव्यको जितनी पर्याय हो सकती हैं उनकी योग्यताका पुद्गलद्रव्यमें सद्भाव है और चेतनादि पर्यायोंकी योग्यताका उसमें अभाव है । इसलिये पुद्गलद्रव्य अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्य है और चेतनादिपर्यायोंकी अपेक्षा अभव्य है । इस तरह संपूर्ण द्रव्य भव्य और अभव्य कहे जा सकते हैं। जीवोंकी तरह इनम भव्य और अभव्यका भेद नहीं बतलानेका कारण यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एकही है तथा ये अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्य और दूसरे द्रव्यकी पर्यायोंकी अपेक्षा अभव्यरूप हैं। इनमें ये भव्यता और अभव्यता परस्पर अविरुद्ध होनेसे एक जगह पायी जाती है । कालाणु और पुद्गल यद्यपि बहुत है लेकिन इन सबमें भी समानरूपसे अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्यता और परद्रव्यकी पर्यायोंकी अपेक्षा अभव्यता एक ही जगह एक हो साथ पायी जाती है, इसलिये इन द्रव्योंमें भव्य अभव्यका भेद नहीं बन सकता है। इन द्रव्योंकी यह भव्यता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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