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८२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
जैनागममें वस्तुको अनेकान्तात्मक माना गया है अर्थात् जैनागममें बतलाया गया है कि प्रत्येक वस्तु भावरूप और अभावरूप परस्पर-विरोधी अनन्तधर्मात्मक है और वे भावरूप तथा अभावरूप परस्पर-विरोधी अनन्तधर्म वस्तुमें अपने-अपने विरोधी धर्मके साथ ही रहा करते हैं। प्रत्येक भावरूप धर्म अपने विरोधी अभावरूप धर्मके साथ ही वस्तुमें रह रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुमें नित्यरूप धर्म रह रहा है, तो उसका विरोधी अनित्यरूप धर्म भी उसमें रह रहा है। इस विषयको आवश्यकताके अनुसार पूर्वमें स्पष्ट किया गया है। पूर्व में हम यह भी बतला आये हैं कि प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान परस्पर-विरोधी उन दो धर्मोमेंसे एक धर्म तो निश्चयरूप होता है और एक धर्म व्यवहाररूप होता है। इस आधारपर वस्तुतत्त्वके प्रतिपादनमें यह बात निर्णीत होती है कि जो वचन वस्तुतत्त्वके निश्चय और व्यवहाररूप दोनों अंशोंका प्रतिपादन करता है वह वचन प्रमाणरूप है । जैसे-“वस्तु नित्यानित्य है" । यह वचन वस्तुके निश्चय और व्यवहार दोनों अंशोंका प्रतिपादन करता है इसलिये प्रमाणरूप है। जो वचन वस्तुके निश्चयांशका निश्चयरूपसे प्रतिपादन करता है वह वचन निश्चयनयरूप है । जैसे-“प्रत्येक वस्तु अपनी अपनी परिणतिका उपादान कारण होता है" । यह वचन वस्तुमें विद्यमान उपादनकारणतारूप निश्चय धर्मका प्रतिपादन करता है, इसलिए निश्चयनयरूप है। जो वचन वस्तुके व्यवहारांशका व्यवहारांश रूपमें प्रतिपादन करता है वह वचन व्यवहारनयरूप है । जैसे—“चित् अचित्की परिणतिमें और अचित् चित्की परिणतिमें निमित्तकारण होता है"। वह वचन चित् में अचित्की परिणतिकी और अचितमें चित्की परिणतिको विद्यमान निमित्तकारणतारूप व्यवहारधर्मका प्रतिपादन करता है, इसलिये व्यवहारनयरूप है। जो वचन अवस्तुको वस्तुरूपमें प्रतिपादन करता है वह वचन प्रमाणाभास है, जैसे-“गधेके सींग होते हैं"। यह वचन सर्वथा असद्भूत वस्तुका प्रतिपादन करता है इसलिये प्रमाणाभास हैं। जो वचन एक वस्तुको अन्य वस्तुरूप प्रतिपादन करता है वह वचन भी प्रमाणाभास है जैसे-“संपूर्ण दृश्यमान जगत् ब्रह्मकी ही पर्याय है"। यह वचन अचेतनको चेतनरूप प्रतिपादित कर रहा है इसलिये प्रमाणाभास है। इसी प्रकार जो वचन वस्तुके एक अंशको वस्तु रूपमें प्रतिपादन करता है वह भी प्रमाणाभास है । जैसे-वस्तुको सर्वथा भावात्मक या सर्वथा अभावात्मक मानना अथवा सर्वथा नित्यात्मक या सर्वथा अनित्यात्मक मानना इत्यादि वचन वस्तुके अंशको वस्तुरूपमें प्रतिपादन करते हैं, इसलिये ये वचन भी प्रमाणाभास हैं । जो वचन वस्तुके एक अंशको बस्तुके अन्य अंशके रूपमें प्रतिपादन करते हैं वे वचन नयाभास होते हैं ऐसा ऊपर कहा गया है। इस आधार पर जो वचन वस्तुके व्यवहारांशका निश्चयांशरूपमें प्रतिपादन करनेवाला हो वह निश्चयनयाभास है । जैसे-"चित् ही अचितरूप परिणत होता है" । अथवा “अचित् ही चित् रूप परिणत होता है" यह वचन निश्चय नयाभास है क्योंकि चित् अचित्की उत्पत्तिमें और अचित चितकी उत्पत्तिमें निमित्तकारणरूप व्यवहारकारण ही होते हैं, उपादानकारणरूप निश्चयकारण नहीं होते हैं। इस तरह उक्त वाक्योंमें निमित्तकारणरूप व्यवहारका रणको उपादानकारणरूपमें निश्चयकारणरूप प्रतिपादित किया गया है, इसलिये वे दोनों वाक्य निश्चयनयाभास है। इसी प्रकार आत्मा और उसके स्वभावभूत चैतन्यका पृथक-पृथक अस्तित्व स्वीकार करके चैतन्यके योगसे आत्माको चितुरूप प्रतिपादन करना व्यवहारनयाभास है। आत्मा और चैतन्यमें सर्वथा अभेद मानना भी निश्चयनयाभास है।
यहाँ प्रमाण और प्रमाणाभास तथा नय और नयाभासके रूपमें जितना विवेचन किया गया है वह सब वचनरूप श्रुतके सम्बन्धमें किया गया है। ज्ञानरूप श्रुतके सम्बन्धमें कहा जा सकता है कि इनसे होने वाला बोध भी उस रूपमें प्रमाण और प्रमाणाभास तथा नय और नयाभासरूप ही होगा। इसलिये यहाँ पर उसका विवेचन अलगसे नहीं किया जा रहा है।
ऊपरके कथनसे यह बात स्पष्ट होती है कि वचनरूप प्रमाणश्रुत और नयश्रुतका पदार्थके साथ
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