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________________ ७८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य ऊपर पांचवे गुणस्थानसे दशवे गुणस्थान तक व्यवहारसम्यक्चारित्रका और ११वे से लेकर चौदहवें गणस्थान तक निश्चयसम्यकचारित्रका सदभाव बतला आये हैं। इससे यह भी सिद्ध हो कि प्रथमसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक व्यवहारसम्यक्चारित्रका अभाव ही पाया जाता है। इसी प्रकार यदि स्वाश्रयता और पूर्णताको ही निश्चयसम्यग्ज्ञानकी कसौटी माना जाय, जो कि तत्त्वतः सही है, तो क्षायिकरूप केवलज्ञान ही निश्चयसम्यग्ज्ञानकी कोटिमें आता है । अतः पराश्रयता और अपूर्णताके आधारपर मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चारों ही ज्ञान क्षायोपशमिक होनेके कारण व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी कोटिमें ही आ जाते हैं। ऐसी स्थितिमें व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी स्थिति चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर १२वें गुणस्थान तक सिद्ध होती है व तेरहवे गुणस्थान व उसके आगे ही निश्चयसम्यग्ज्ञानका सद्भाव सिद्ध होता है ।' चतुर्थ गुणस्थानसे पूर्वका ज्ञान मिथ्याज्ञान ही सिद्ध होता है । इस विवेचनका सार यह है कि प्रथमसे तृतीय गुणस्थान तक मोक्षमार्गताका सर्वथा अभाव है, कारण कि वहाँ तक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका अभाव ही रहा करता है । अतः वहाँ पर संसारकी ही कारणता रहा करती है। व्यवहारसम्यग्ज्ञानरूप मोक्षमार्ग चतुर्थ गुणस्थानसे प्रारम्भ हो जाता है और १२वेंगुणस्थान तक रहता है व तेरहवें गुणस्थानमें निश्चयसम्यग्ज्ञान हो जाता है और वह आगे भी रहता है। व्यवहारसम्यग्दर्शन भी चतुर्थ गुणस्थानमें उत्पन्न होकर सातवे गुणस्थान तक रहता है। इसके आगे निश्चयसम्यग्दर्शन ही रहा करता है । परन्तु किसी जीवके निश्चयसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति चतुर्थ गुणस्थानमें भी हो जाती है, किसीको पाँचवे में, किसीको छठेमें और किसीको सातवें में भी होती है। इस तरह निश्चयसम्यग्दर्शनका सद्भाव चौथेसे सातवें तकके गुणस्थान तक भी सम्भव हो जाता है । व्यवहारसम्यक्चारित्रकी प्राप्ति पाँचवें गुणस्थानमें होती है। इसका सद्भाव १० गुणस्थान तक रहता है । ११वें गुणस्थानमें व आगे निश्चयसम्यक् चारित्र ही रहता है तथा इसकी पूर्णता चतुर्दश गुणस्थान के अन्त समयमें होती है । पाँचवेंगुणस्थानसे पूर्व व्यवहारसम्यक्चारित्र भी नहीं रहता है। विषयका उपसंहार करते हुए हमने ऊपर यद्यपि निश्चय और व्यवहाररूप विभाजन मोक्षमार्गको दृष्टिमें रखकर अथवा यों कहिये कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको दृष्टिमें रखकर किया है। परन्तु लेखमें शास्त्रीय दृष्टिसे चर गानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन सभी अनुयोगोंके आधारसे भी विस्तारसे किया है। साथ ही लौकिक दृष्टिसे भी संक्षिप्त रूपमें किया है। इसलिये इसके सम्बन्धमें विस्तार न करके अब इस बातपर विचार करते हैं कि जब आगममें 'निश्चयनय' और 'व्यवहारनय' शब्दों का भी सर्वत्र बहुलतासे प्रयोग मिलता है तो इनका अर्थ और प्रयोजन क्या है ? निश्चयनय और व्यवहारनयका अर्थ और प्रयोजन नयोंको जैनागममें प्रमाणका अंश स्वीकार किया है। जैनागममें यह भी बतलाया गया है कि वस्तुतत्त्वको समझनेके लिये जो साधकतम (करणरूप) साधन हो उसे प्रमाण समझना चाहिये। इसके साथ १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सुत्र १ को श्लोकवार्तिकटोकाके वार्तिक-श्लोक ९३, ९४, ९५ । २. नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः ।। -तत्त्वा०, श्लो० १-६, वा० २९ । ३. प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम ।। -प्रमेयरत्नमाला १-१ को टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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