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________________ ७६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ धर्म कहना असंगत, मिथ्या या कल्पनारूप ही है। इसीलिये जो व्यक्ति सर्वथा अवास्तविक धर्मोको ही व्यवहार धर्मके रूपमें समझ बैठे हैं वे महान् भ्रमके शिकार हो रहे हैं। इसी तरह जिन लोगोंने व्यवहारधर्मको भी सर्वथा वास्तविक धर्म मान रक्खा है वे भी महान् भ्रमके शिकार हो रहे है। ___लोकमें भी व्यवहारधर्मको कथंचित् वास्तविक मानना अत्यन्त आवश्यक है । जैसे--"यह शरीर मेरा है" "यह मकान मेरा है", "यह द्रव्य मेरा है" "ये मेरे स्वजन है" "मैं अमक समाजका व्यक्ति 'ये मेरे स्वजन है", "मैं अमुक समाजका व्यक्ति हूँ" और "अमुक ग्राम या देशका रहनेवाला हूँ" इत्यादि व्यवहार यदि सर्वथा अवास्तविक ही हैं तो लोककी और अध्यात्मकी संपूर्ण व्यवस्था हो छिन्न-भिन्न हो जायगी, क्योंकि फिर तो सर्वत्र अराजकता फैल जायगी व अधार्मिकताका ही बोलबाला हो जायगा। विवेकी पुरुषोंकी तो कल्पना करके रूह काँपने लग सकती है। यहाँ पर यह भी ध्यान रखना चाहिये कि एक स्थानपर वस्तुका जो व्यवहारधर्म है वह दूसरे स्थान पर निश्चयधर्म हो सकता है। परन्तु ऐसे भी निश्चयधर्म होते हैं जो सर्वथा निश्चय होकर ही रहते हैं जैसेपुद्गलाणुओंके मिश्रणसे बनी हुई मिट्टीरूप स्कंधपर्याय व्यवहारधर्म है परन्तु वही मिट्टी घटोत्पत्तिमें निश्चयरूपताको प्राप्त हो जाती है। यही कारण कि मिट्टीरूप स्कंधपर्यायको द्रव्यके रूप में यदि कहा जाय तो वह अशुद्ध द्रव्य ही कहा जायगा। इस तरह केवल अणुरूप पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है जिसे एकान्तः (सर्वथा) वास्तविक या शुद्ध द्रव्य कहा जा सकता है । यह व्यवस्था सर्वत्र लागू कर लेना चाहिये ।। ____ इस तरह हम पुनः कह देना चाहते हैं कि परसापेक्ष सर्वथा वास्तविकताका होना निश्चयकी कसौटी है, कथंचित् वास्तविकता और कथंचित् अवास्तविकताका होना व्यवहारकी कसौटी है तथा परनिरपेक्ष सर्वथा वास्तविकताका होना मिथ्यारूपता की कसौटी है। उपसंहार अध्यात्मके प्रकरणमें जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप मोक्षमार्गका विवेचन किया गया है और उससे जो निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारित्रको निश्चयमोक्षमार्ग तथा व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्रको व्यवहारमोक्षमार्ग कहा गया है। इनके विषयमें इसतरह निश्चय-व्यवहारका विभाजन करना चाहिये कि किसमें, किस तरहसे स्वाश्रयता या अभेदरूपता पायी जाती है और किसमें, किस तरहसे पराश्रयता या भेदरूपता पायी जाती है । इसप्रकार यह निर्णीत होता है कि औपशमिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा औपशमिक सम्यक्चारित्र और क्षायिक सम्यक्चरित्र ये सभी निश्चयधर्मकी कोटिमें आते हैं । यह बात दूसरी हैं कि औपशमिक सम्यग्दर्शन और औपशमिक सम्यक्चारित्र अशाश्वत (अन्तर्मुहूर्तस्थायी) हैं, जबकि क्षायिकसम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यक्चारित्र शाश्वत (स्थायी) हैं। इन सबको निश्चयधर्म इसलिये कहा जाता है कि ये सभी उस-उस कर्मके उपशम या क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण सर्वथा आत्माश्रित धर्म सिद्ध होते हैं । क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन और क्षायोपशमिकसम्यक्चारित्र ये दोनों व्यवहारधर्मकी कोटिमें आते हैं। इनको व्यवहारधर्म कहनेका कारण यह है कि ये दोनों उस-उस कर्मके क्षयोपशमसे पैदा होते हैं अर्थात् इनको उत्पत्तिमें उस-उस कर्मकी सर्वघाती प्रकृतियोंके वर्तमानमें उदय आनेवाले निषेकोंका उदयाभावी क्षय, आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती प्रकृतिका उदय, इसतरह कर्मका उदयांश, उपशमांश और क्षयांश तीनों ही कारण होते हैं। ऐसी स्थितिमें इनमें जहाँ कर्मके उपशम और क्षयकी अपेक्षा आत्माश्रितता पायी जाती है वहाँ कर्मके उदयकी अपेक्षा पराश्रितता भी पायी जाती है। इस तरह इनमें जहाँ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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