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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ७३ जीवका शरीरके छोटे-बड़े आकारके अनुसार जो छोटा-बड़ा आकार यथासमय बनता रहता है तथा जीवकी नर-नारकादि पर्यायोंके रूपमें पर्याय बनती रहती हैं ये सभी तथा इसी प्रकारके प्रत्येक वस्तुमें अन्य वस्तुके यथायोग्य संयोग या मिश्रणसे होने वाले सभी द्रव्यपरिणाम स्वपरप्रत्यय द्रव्यपरिणमन कहलाते हैं । इसी प्रकार आत्माको ज्ञानशक्तिका पदार्थको जाननेरूप परिणमन आत्माकी उस ज्ञानशक्तिमें विद्यमान परिणमन करनेकी योग्यताके आधारपर उस-उस पदार्थका योग मिलनेपर ही हुआ करता है। यह आत्म-वस्तुका स्वपरप्रत्यय गुणपरिणमन है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये । आत्माकी ज्ञानशक्तिके पदार्थको जानने रूप परिणमनमें पदार्थ तो सर्वत्र कारण होता है। वह ज्ञानशक्ति चाहे मतिज्ञानरूप हो अथवा चाहे श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान या केवलज्ञानरूप हो । अर्थात् इन पाँचों ज्ञानोंमेंसे कोई भी ज्ञान पदार्थके अभावमें कदापि पदार्थज्ञानरूप परिणमन नहीं कर सकता है। यही कारण है कि केवलज्ञानकी शक्ति विश्व में विद्यमान सभी पदार्थोंसे अनन्तगुणी' होकर भी सर्वज्ञ उसके द्वारा केवल उन्हीं पदार्थों को जानता है जो अपनी सद्रूपताको धारण किये हुए हैं। इसका अभिप्राय यही है कि बिना पदार्थका सहयोग मिले केवलज्ञानका परिणमन पदार्थको जानने रूप नहीं हो सकता है। इस प्रकार केवलज्ञानशक्तिका पदार्थज्ञानरूप परिणमन पदार्थाधीन ही सिद्ध होता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो पदार्थके साथ-साथ यथायोग्य पाँच पौद्गलिक इन्द्रियों तथा छठे मनकी सहायतासे ही उत्पन्न हुआ करते हैं । इस प्रकार यह बात सिद्ध हो जाती है कि आत्माकी ज्ञानशक्तिके पदार्थको जाननेरूप परिणमनमें स्वगत योग्यताके साथ-साथ पदार्थों तथा आवश्यकतानुसार इन्द्रियों और मनकी कारणता भी रहा करती है। इतना ही नहीं, मतिज्ञानमें प्रकाश भी यथायोग्य कारण हुआ करता है और श्रुतज्ञानमें शब्द भी कारण हुआ करते हैं। यहाँ पर विचारणीय बात यह है कि पदार्थज्ञानरूप परिणमनमें आत्माकी ज्ञानशक्तिमें रहनेवाली कारणता भिन्न प्रकारकी है और पदार्थोंमें रहनेवाली कारणता भिन्न प्रकारकी है तथा इन्द्रियोंमें, मनमें और प्रकाशमें रहनेवाली कारणता भिन्न-भिन्न प्रकारकी है। इसी तरह श्रतज्ञानमें शब्दकी कारणता भी भिन्न प्रकारकी है। अर्थात आत्माकी ज्ञानशक्तिकी जो कारणता है वह उपादानरूप है क्योंकि वह ज्ञानशक्ति ही पदार्थज्ञानरूप परिणत होती है । पदार्थों में, मनमें, इन्द्रियोंमें, प्रकाशमें और शब्दमें जो कारणता है वह निमित्तरूप है क्योंकि ये सब स्वयं पदार्थज्ञानरूप परिणमन न करते हुए आत्माकी ज्ञानशक्तिके पदार्थज्ञानरूप परिणमनमें सहायक होते हैं। इनमें भी आत्माकी ज्ञानज्ञक्तिके पदार्थज्ञानरूप परिणमनमें पदार्थ अवलम्बनरूपसे निमित्त होता है अर्थात् पदार्थ जब आत्मप्रदेशोंपर दर्पणकी तरह प्रतिबिम्बित होता है तभी आत्माकी ज्ञानशक्तिका पदार्थज्ञानरूप परिणमन होता है, अन्यथा नहीं। इन्द्रियाँ और मन करणरूपसे निमित्त होते हैं। प्रकाश विद्यमानता रूपसे ही निमित्त होता है । श्रुतज्ञानमें शब्द श्रवणपूर्वक निमित्त होते हैं । पूर्वमें हम इस बातका कथन कर आये हैं कि कार्य के प्रति कार्यसे अभिन्न वस्तुमें विद्यमान उपादान वाश्रित धर्म होनेके कारण "स्वाश्रितो निश्चयः" इस आगमवाक्यके अनसार निश्चयरूप है और उसी कार्यके प्रति कार्यसे भिन्न वस्तु में विद्यमान निमित्तकारणता "पराश्रितो व्यवहारः" इस आगमवाक्यके अनुसार व्यवहाररूप है। पूर्व में हम यह भी कह आये हैं कि जिसमें निश्चयरूपता रहा करती है वह सर्वथा वास्तविक, भूतार्थ, सद्भूत या सत्यार्थ हुआ करता है और जिसमें व्यवहाररूपता रहा करती है वह कथंचित् वास्तविक आदि १. त्रिलोकसार, द्विरूपवर्गधारा प्रकरण, गाथा ६९, ७०, ७१, ७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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